दिवस का समापन था
गगन रक्तिम हो रहा था
स्वच्छ शीतल वायु
प्रवाह पर थी
तरुवर रक्तिम कणों
से भरे हुए
धरनी पर सर्वत्र
रक्त का अहसास
रवि की रक्तिम किरने
दहला रही थी हृदय
साँझ का निशा से मिलन
स्वागत में उल्लुओं की कर्कश चीखें
चमगादडों की फडफड़ाहट
खंडहरों में नीरवता
सहसा पवन का रुक जाना
मौत का सन्नाटा
पत्ता तक नही हिलता था
उस शमशान में बैठा
मैं निहार रहा था
उन चंद चिताओं को
उनकी गगनचुम्बी जवालायें
इस संसार पर
अपनी विजय का
उद्घोष कर रही थी
शमशान से मैं गया नही
दीवानापन था मेरा
देख रहा था
संसार पर विजय पाने वालों की
अन्तिम यात्रा
जीते तो वे थे
मैं जीते जी हार गया
नभ में शशि की
बादलों से अठखेलियाँ
रंगरेलियां
यह उसका मुझ बेबस पर
मंदहास था।
आपका
शिल्पकार
(फोटो गूगल से साभार)
ललित जी बहुत ख़ूब
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उस शमशान में बैठा
मैं निहार रहा था
उन चंद चिताओं को
उनकी गगनचुम्बी जवालायें
इस संसार पर
अपनी विजय का
उद्घोष कर रही थी
शमशान से मैं गया नही
दीवानापन था मेरा
देख रहा था
संसार पर विजय पाने वालों की
अन्तिम यात्रा
जीते तो वे थे
ललित जी बहुत अच्छी रचनायें हैं आपकी ....!!