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कितना वह मजबूर था--श्रमिक दिवस पर विशेष

आज एक मई श्रमिक दिवस है, श्रम शील हाथों को समर्पित एक पुरानी रचना पेश कर रहा हुँ। आशा है कि आपको पसंद आएगी। 


दुनिया बनाई देखो उसने कितना वह मजबूर था
एक जून की रोटी को तरसा मेरे देश का मजदूर था

चंहु ओर हरियाली की  देखो एक चादर सी फैली है 
यही देखने खातिर उसने भूख धूप भी झेली है 
अपने लहू से सींचा धरा को वह भी बड़ा मगरूर था
एक जून की रोटी को तरसा मेरे देश का मजदूर था

महल किले गढ़े हैं उसने, बहुत ही बात निराली है
पसीने का मोल मिला ना पर खाई उसने गाली है 
सर छुपाने को छत नहीं है ये कैसा दस्तूर था
एक जून की रोटी को तरसा मेरे देश का मजदूर था

पैदा किया अनाज उसने, पूरी जवानी गंवाई थी
मरकर कफ़न नसीब न हुआ ये कैसी कमाई थी
अपना सब कुछ दे डाला था  दानी बड़ा जरूर था 
एक जून की रोटी को तरसा मेरे देश का मजदूर था

आपका
शिल्पकार

Comments :

30 टिप्पणियाँ to “कितना वह मजबूर था--श्रमिक दिवस पर विशेष”
M VERMA ने कहा…
on 

महल किले गढ़े हैं उसने, बहुत ही बात निराली है
पसीने का मोल मिला ना पर खाई उसने गाली है
मजदूरों और श्रमिकों की दशा और उसके हिस्से में आये दर्द को बखूबी बयान किया है आपने.
सुन्दर रचना

संजय भास्‍कर ने कहा…
on 

एक दम यथार्थ रचना के लिए बधाई!

संजय भास्‍कर ने कहा…
on 

बहुत सुंदर लिखा है .. मजदूरों की वास्‍तविक दशा का चित्रण करती रचना !!

संजय भास्‍कर ने कहा…
on 

मज़दूर की व्यथाकथा का यथा वर्णन, बहुत ही सुन्दर भाव

पी.सी.गोदियाल "परचेत" ने कहा…
on 

पैदा किया अनाज उसने, पूरी जवानी गंवाई थी
मरकर कफ़न नसीब न हुआ ये कैसी कमाई थी
अपना सब कुछ दे डाला था दानी बड़ा जरूर था
एक जून की रोटी को तरसा मेरे देश का मजदूर था

बहुत सुंदर !

Khushdeep Sehgal ने कहा…
on 

कल एक रिपोर्ट बनाई थी...

मुंबई में प्रति व्यक्ति आय देश में सबसे ज़्यादा यानि एक लाख अट्ठाईस हज़ार रुपये सालाना है...

उसी मुंबई में मजदूरों की स्लम बस्ती धारावी में 1440 लोगों पर एक शौचालय है...एक वर्ग किलोमीटर के इलाके में दस लाख लोग रहते हैं...मुंबई की 54 फीसदी आबादी स्लम में रहती है...बारह लाख लोगों की आमदनी रोज़ 20 रुपये से भी कम है...

ये उसी मुंबई के आंकड़े हैं जहां दुनिया के चौथे नंबर के रईस मुकेश अंबानी भी रहते हैं...

वाकई मेरा भारत महान...

जय हिंद...

Khushdeep Sehgal ने कहा…
on 
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
ZEAL ने कहा…
on 

एक जून की रोटी को तरसा मेरे देश का मजदूर था

Sigh !

Udan Tashtari ने कहा…
on 

दुनिया बनाई देखो उसने कितना वह मजबूर था
एक जून की रोटी को तरसा मेरे देश का मजदूर था


-एकदम सही कहा!

राजीव तनेजा ने कहा…
on 

श्रमिकों की शोचनीय दशा को दर्शाती आपकी कविता वाकयी बहुत अच्छी बन पड़ी है...लेकिन मजदूरों की ऐसी दशा गाँव-देहात में तो हो सकती है यहाँ दिल्ली जैसे शहरों में नहीं...यहाँ के ज़्यादातर मजदूर बहुत पैसा कमाते हैं(कई बार पढ़े-लिखे लोगों से भी ज्यादा) और चाहें तो अपना जीवन स्तर सुधार भी सकते हैं और सुधार भी रहे हैं|
इनकी बुरी आदतें जैसे रोज नशा करना....मीट-मुर्गा ...दारु...अय्याशी ...इन्हें ऊपर उठाकर अपना जीवन संवारने नहीं देती

Unknown ने कहा…
on 

"एक जून की रोटी को तरसा मेरे देश का मजदूर था"

तरसा था? आज भी तो तरस रहा है।

संगीता पुरी ने कहा…
on 

अवधिया जी की बात सही है .. सिर्फ था ही नहीं है भी .. आगे रहे नहीं .. ऐसी प्रार्थना की जानी चाहिए !!

नीरज मुसाफ़िर ने कहा…
on 

अरे हां, आज तो मजदूर दिवस है।

honesty project democracy ने कहा…
on 

जब मजदूरों की रोटी ये भूखे नंगे नेता और मंत्री खायेंगे तो मजदूरों का यही हाल होगा / मजदूरों की दयनीय स्थिति को चित्रित और उस पर सार्थक विवेचना करती आपके इस रचना को सरकार में बैठे निति निर्माताओं को पढना चाहिए /

girish pankaj ने कहा…
on 

mazdooron k paksh men likhanaahi sahitykaar ka dharm hai. aur shilpkar ko to likhanaa hi chahiye. sundar-lalit-rachanaa k liye badhai.

नरेश सोनी ने कहा…
on 

सुंदर पंक्तियां।

ताऊ रामपुरिया ने कहा…
on 

सत्य सटीक और सामयिक रचना के लिये आभार.

रामराम.

vandana gupta ने कहा…
on 

मजदूरों की वास्‍तविक दशा का चित्रण करती रचना !!

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…
on 

दुनिया बनाई देखो उसने कितना वह मजबूर था
एक जून की रोटी को तरसा मेरे देश का मजदूर था
बहुत-बहुत सुन्दर रचना.

राज भाटिय़ा ने कहा…
on 

वाह वाह ललित भाईजबाब नही, बहुत ही सुंदर रचना.
धन्यवाद

कडुवासच ने कहा…
on 

अपना सब कुछ दे डाला था दानी बड़ा जरूर था
एक जून की रोटी को तरसा मेरे देश का मजदूर था
.... बेहद प्रसंशनीय रचना ... मजदूर और मजदूर दिवस ...!!!

मनोज कुमार ने कहा…
on 

यथाथ को दर्शाती रचना।

बेनामी ने कहा…
on 

बेहतर रचना...भाईजान....

हरकीरत ' हीर' ने कहा…
on 

दुनिया बनाई देखो उसने कितना वह मजबूर था
एक जून की रोटी को तरसा मेरे देश का मजदूर था


वाह.....वाह.....
दुनिया बनाने वाले क्या तेरे दिल में समाई
तुने काहे को दुनिया बनाई ......

rashmi ravija ने कहा…
on 

पैदा किया अनाज उसने, पूरी जवानी गंवाई थी
मरकर कफ़न नसीब न हुआ ये कैसी कमाई थी
अपना सब कुछ दे डाला था दानी बड़ा जरूर था
एक जून की रोटी को तरसा मेरे देश का मजदूर था
मन को झकझोर देने वाली पंक्तियाँ...ये दुखद स्थिति बदलनी चाहिए

योगेन्द्र मौदगिल ने कहा…
on 

wah bhai wah....vicharniya rachna...

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…
on 

मार्मिक.....सच बहुत ही दर्दनाक स्थिति है...

alka mishra ने कहा…
on 

majduur diwas par ही तो hmen unkii majbuurii yaad aatii है
अब dekhiye unke लिए koii अच्छी yojnaa ban hi नहीं paa रही
waise तो puuraa देश ही raam bharose है

डॉ. मनोज मिश्र ने कहा…
on 

जन्मदिवस की शुभकामना के लिए आपको बहुत धन्यवाद.

निर्मला कपिला ने कहा…
on 

sundar satya se rubroo karavati rachana ke liye badhai

 

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