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चेतावनी

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रफ़्तार
स्वागत है आपका

गुगल बाबा

इंडी ब्लागर

 

देखकर भी नहीं बोलते


बचपन में देखा था
गलियारे के घरों में
साथिये मंडे हुए
किसी बटेऊ के आने पर
स्वागत करते हुए
गांव की गलियां
खड़ी रहती थी हरदम
हुक्का-पानी की
महफिलें जमती थी
आज साथिये गूंगे हो गये
देख कर भी नही बोलते
मूकदर्शक हो गए
बटेऊ आते जाते हैं
कोई उनकी बाट नही देखता,
कहीं हुक्का नही
कहीं महफ़िल नही गांव में
साथिये गूंगे हो गए
शहरी हो गए
लील गया शहर, गांव को भी,
चिमनियों के धुंए से
मुख पर कालिख पुती कालिख से
आँखें धुंधला गयी
मोतियाबिंदी आखें,
नहीं देख सकती
 बटेऊ को
कुंए की मुंडेर पर
काला कागा भी नहीं दीखता
साथिये मूक हो गए हैं
देखकर भी नहीं बोलते
चिमनियों के धुंए से
मुख पर कालिख पुत गयी है
आँखें धुंधला गयी हैं
नहीं देख सकती
वे बटेऊ को
कुंए की मुंडेर पर
काला कंउवा भी नहीं दीखता
साथिये मूक हो गए हैं
देखकर भी नहीं बोलते
सिर्फ अपने शहरीपन का
अहसास कराते हैं।
आपका
शिल्पकार
(foto google se sabhar)
शब्दार्थ
साथिये=गांव में दीवालों पर बनाये जाने वाला स्वस्तिक
बटेऊ=मेहमान
मंडे=बने

पॉँच रोटियां

रोटी तू तो
जीवन है मेरा
मर जाता
तेरे बिना मैं
तू मेरी महबूबा है
प्रियतमा है
सब कुछ
रोटी तू
नदिया है
आशा-निराशा
रोना-हँसना
सूख-दुख
बहा ले जाती है
अपने साथ
सब कुछ


रोटी तू तो
सागर है
गाली,झूठ
थप्पड़
माँ का दुःख
समा लेती
अपने अन्दर
सबकुछ
रोटी तू तो
गोल है
समय का चक्र
गाड़ी का पहिया
कुम्हार का चाक
सूरज का गोला
सबकुछ
रोटी तू तो
छलना है
महाठगनी है
लेती है
अपने बदले
इज्जत
हर लेती है
सब कुछ


आपका
शिल्पकार

(फोटो गूगल से साभार)

शहर उसका रंग ले गये

कुंए से पानी भरती
जुगरी को देखता था मैं
बचपन से /उसके पीछे
दौड़ता चला जाता था मै
निरंतरता का पैमाना थी वह
भैंस की सानी व दूध से लेकर
पीसने तक
जग्गू के खाने कपड़े से लेकर
सुक्खी के स्कूल जाने तक
चलती रहती वह
महामाया थी वह /माँ थी वह
उपलों की थाप की लय से
सरकंडों की तान तक
उसकी नौगजी मुस्कान
तनी रहती थी
कभी न थकती थी वह
मैं हमेशा उसका हमसाया
बना रहता
नींद से उठ कर
मन्दिर की आरती से लेकर
शाम के भजनों तक
मैं पढने चला गया
गांव पहुचने पर जुगरी मिली
एक लंबे समय के बाद
मैं पहचान नही सका
काले बाल
धूसर हो गए थे
लटें उलझी हुई थी
वह मुझे मिली कुंए पर ही
मेरे जाने के बाद
जग्गू शहर चला गया था
उसकी राह में
पथरा गई थी
बावली हो गयी थी वह
जब उसे सुक्खी का
कफ़न मांगना पड़ा
शहर उसका रंग ले गये
फ़िर भी जुगरी चल रही है
आज भी
निरंतर/अनवरत
भैंस की सानी से
कुंए की जगत तक



आपका
शिल्पकार

(फोटो गूगल से साभार)

यौवन बुढापे का इतिहास है!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

एक सूखी टहनी पर
कुछ बुँदे स्वाति मेह की
अनायास ही टपक गई
उसने उठ कर अंगडाई ली
सभी बंधन चरमरा गए
जोड़ के टांके भी चटक गए
जनम रहा था नया वृक्ष
मै आनंदित था कि
अपनी ही शाख को
धरती के सीने में जड़ें रोपकर
पुष्पित पल्लवित होते देखूंगा
एक सिरहन सी रगों में दौड़कर
मेरे रोंगटे खड़े कर देती है
जरा को यौवन कि अनुभूति
कसक सी जाती है,
खीसें निपोरता हुआ यौवन
जर्जर बुढापे को देखता है
बुढापा यौवन का भविष्य है
यौवन बुढापे का इतिहास है
कितना विरोधाभास है दोनों में
फ़िर भी सामंजस्य है
दोनों गुजर जाते हैं
अपनी-अपनी गति कि ओर
काल को रौंदते हुए



आपका
शिल्पकार
(फोटो गूगल से साभार)

जंजीरों से बांधने वाली सभ्यता

मैं जंगली हूँ,
सीधा सा,भोला सा
सबसे डरने वाला
अपनी छोटी सी दुनिया में
बसने वाला,रहने वाला
अपने जंगल को चाहने वाला
एक मृग के पीछे चला आया
रास्ता भटक गया,
पकड़ लिया गया मुझे
शहर में घेरकर


जंजीरों से बंधा गया मुझे
इनमे मेरा अपना कोई नही था
सब पीछे जंगल में छुट गया
मेरी माँ,मेरा कुत्ता,मेरी शान्ति
अब ये मुझे पाल रहे हैं
कुर्बानी के बकरे की तरह
जगह -जगह भीड़ में घुमाते है मुझे
बन्धनों में जकडा छटपटाता हूँ मैं
मुझे मेरे घर की याद आती है
मेरा घर
मेरा जंगल बुलाता है मुझे
मैं उसके पलंग के पाए से बंधा हूँ
पामेरियन कुत्ते की तरह
वे हँसते हैं तो
मुझे बड़ा डर लगता है
उनकी हँसी बड़ी डरावनी है
कैसी विडम्बना है
शहरी जंगल से डरता है
जंगली शहरी से डरता है,
दोनों डरते हैं,
वे मुझे चाहते हैं,
पुचकारते हैं ,दुलारते हैं,
लेकिन मैं जंगली,सिर्फ़ जंगली
जंगल की रट लगाये रहता हूँ



वह भी मुझे दुलारती है
पुचकारती है खिलाती है
अपने आंचल में बाँध लेना चाहती है
मै जंगल में अपना
भविष्य देखता हूँ
इन जंजीरों को तोड़ना है
तोड़ने का प्रयास करूँगा
आजाद होना चाहता हूँ
इस कैद से
यहाँ पर सब अपने हैं लगता है
पर अपना सा कोई नही होता
कुछ समय का अनुबंध है अभिनय का
छुट कर जाना चाहता हूँ
अपने जंगल में
जो सिर्फ़ मेरा है
अपना सा है/सभ्य है
एक बार इस कैद से छुट जाऊँ
फ़िर कही नही आऊंगा
शहर में
जंजीरों से बांधने वाली
सभ्यता में
गूम होने के लिए
आपका
शिल्पकार

(फोटो गूगल से साभार)

पत्थर तोड़ना ही मेरी किस्मत में लिखा था

पत्थर ढोना ही मेरी किस्मत में लिखा था

पहाड़ तोड़ना ही मेरी किस्मत में लिखा था



पत्थरों को तराश कर उसके बुत बनाये मेने

भूखे पेट मरना ही मेरी किस्मत में लिखा था



बहुत कोडे बरसाए थे उसने मेरी पीठ पर

जख्मो का दर्द ही मेरी किस्मत में लिखा था



पहाडों को तोड़ कर उनके लिए महल बनाये हैं मैंने

दीवारों में चुना जाना मेरी किस्मत में लिखा था



शाहकार बनने पर वे कटवा देंगे मेरे दोनों हाथ

उनका येही इनाम मेरी किस्मत में लिखा था



आपका

शिल्पकार



(फोटो गूगल से साभार)





















मुखौटा बनकर खूंटी से लटक गया हूँ

मै एक बहुरुपिया हौं
क्षण - प्रतिक्षण
मुखौटे बदल लेता हूँ
तू है तो तेरे जैसा
मै हूँ तो मेरे जैसा
न जाने सुबह से शाम तक
कितने रूप बदल लेता हूँ
बेटा,पिता,पति
चहाचा,ताऊ,मामा,आदि आदि
आचार्य, कवि, चित्रकार
उद्घोषक, संचालक आदि आदि
किसान,जवान,सियान
मुर्ख, विद्वान्,बुद्धिमान आदि आदि
मित्र ,शत्रु, आलोचक,
समीक्षक,परीक्षक आदि आदि
अभियुक्त, मुंशी, न्यायाधीश,
गवाह, वकील, आदि आदि,
क्लर्क ,चपरासी, अधिकारी,
चौकीदार, अर्दली आदि आदि
भंगी, पंडित, रसोइया,
महाराज, शिल्पकार आदि आदि
इन बहूरूपों में
मेरा अपना रूप खो गया है
धुंध रहा हूँ मै
अपने असली चेहरे को
जो इन मुखौटों में
एक मुखौटा बनकर
खूंटी से लटक गया है 

आपका
शिल्पकार
(फोटो गूगल से साभार)

कौन था यह?

गैंती की मार से
एक ढेला मिटटी उखड़ती
मिटटी नही लेट्र्रा था वह
कमर झुक कर कमान हो रही थी
माथे पर पसीने की बुँदे चूह रही थी
तभी फ़िर गैंती की मार से
एक ढेला लेट्र्रा उखाड़ता
उसे रांपा से चरिहा में भरता
बुधियारिन के माथे पर धरता
एक गोदी माटी वह कोड़ता
नई श्रृष्टि रचता
भाषण और नारों से दूर
चूल्हे पर हंडिया में भात चुरती वह
सबको खिला कर लांघन रह जाती वह
फ़िर भी दुगने ताकत से चरिहा उठती वह
आज के लांघन से बचने के लिए
उसकी गैंती की धमक से
धरती हिलती, ब्रह्माण्ड हिलता
उसकी बाँहों के बल से
नई सुबह,नया उजाला
उससे दूर था ,
कौन था यह?
मेरे देश कर्मरत
मजदूर था

आपका
शिल्पकार

शब्दार्थ
गैंती = कुदाली
लेट्र्रा-लाल कड़ी मिटटी
रांपा=फावडा
चरिहा=मिटटी उठाने की टोकनी
चुरती= बनती
लांघन=भूखी/भूखा

(फोटो गूगल से साभार)

बांटा जाएगा यौवन

बूढा वृक्ष
जवान हो गया
जब से एक नन्ही परी
आदेश लायी वनराजा से
सबको बांटा जाएगा
यौवन
अब के मदन महोत्सव में
बोनस के रूप में
मैंने भी सोचा
यौवन वितरण
कितना पुनीत कार्य है!
मैं भी अपनी केंचुली
बदल लूँगा,
बूढी शाखाओं में
कोंपले फूटेंगी,
फ़िर आपस में
वे बुझेंगी
तू बता
मैं कल जैसी नही लग रही हूँ?
बड़ी उमंगें भर लाया संदेश
सावनी हिंडोले ने
जर्जर बुढापे को
पींगे मार-मार कर हिला डाला था।
सावनी बयार मेघदूतजैसी थी
हर तरफ उमंगे जवान थी,
मेरी मन में भी जवान होने की कसक थी
सोच कर बूढी हड्डियों में
एक सिरहन सी दौड़ गयी
सहसा विराम लग गया,
मै जाग चुका था,
वो मेरा सपना टूट चूका था।
वो सिरहन का अहसास अभी तक बाकी है,
आपका
शिल्पकार

(फोटो गूगल से साभार)

गर्भपात हो गया

एक बीज से आस जगी थी,मृगतृष्णा सी प्यास जगी थी,
सारा चौपाल सूना-सूना था, जैसे गांव में आग लगी थी,
चारों तरफ़ सन्नाटा-ही सन्नाटा,जैसे कोई सन्निपात हो गया,
उगे बीज को मरते देखा,
जैसे कोई गर्भपात हो गया।

तेरे इस विशाल नीले आँचल में, पंख फैलाये उड़ता था मै,
प्रगति के नए सोपानों में, नित्य सितारे जड़ता था मै,
मुझसे क्या अपराध हो गया, मुझ पर क्यों आघात हो गया,
उगे बीज को मरते देखा,
जैसे कोई गर्भपात हो गया,

पहले भी मै तडफा-तरसा था, तू कभी न समय पर बरसा था,
लिए हाथ में धान कटोरा, मै फ़िर भी बहुत - बहुत हर्षा था,
नई सुबह की आशा में था, सहसा ही वज्रपात हो गया,
उगे बीज को मरते देखा,
जैसे कोई गर्भपात हो गया,

गीली मेड की इस फिसलन पर, मै बहुत दूर जा फिसला हूं,
तेरे कृपा की आस लिए मै,नित तुझको ही भजता हूँ,
डोला गगन आ गया विप्लव,जैसे कोई उल्का पात हो गया,
उगे बीज को मरते देखा,
जैसे कोई गर्भपात हो गया,

असमय बरसा तो क्यों बरसा,चारों तरफ हा-हा कार हो गया,
जिस पर अभी यौवन आना था,वो जीवन से बेजार हो गया,
तेरी इस असमय वर्षा पर, रोऊँ या मै जान लुटा दूँ,
लूटा-पिटा बैठा हूँ अब मै ,जैसे कोई पक्षाघात हो गया,
उगे बीज को मरते देखा,
जैसे कोई गर्भपात हो गया।

आपका
शिल्पकार
(फोटो गूगल से साभार)

मौत का इंतजार अब कौन करेगा




मुझे अब नंगे, पाँव ही चलने दो,


जूतियों का इंतजार, अब कौन करेगा,



तपती दुपहरी को, और भी चढ़ने दो,


छतरियों का इंतजार,अब कौन करेगा।



पाँव के छालों को, और भी बढ़ने दो,


मरहम का इंतजार, अब कौन करेगा।



आँखों से आंसुओं को,और भी बह जाने दो,


पोंछने का इंतजार, अब कौन करेगा।



मुझे अब तुम जिन्दा ही जला डालो,


मौत का इंतजार अब कौन करेगा।



आपका


शिल्पकार







देखो मेरा गांव



हरियाली के चादर ओढे, देखो मेरा सारा गांव ,


झूम के बरसी बरखा रानी,थिरक उठे हैं पांव,


मेरे थिरक उठे हैं पांव,


खेतों में है हल चल रहे, बूढे पीपल पर हरियाली,


अल्हड बालाओं ने भी, डाली पींगे सावन वाली,


गोरैया के संग-संग मै भी, अपने पर फैलाऊ,


मेरे थिरक उठे हैं पांव,


छानी पर फूलों की बेले,बेलों पर बेले ही बेले,


नवयोवना सरिता पर भी हैं,लहरों के रेले ही रेले,


हमको है ये पर कराती, एक मांझी की नाव,


मेरे थिरक उठे हैं पांव,


भरे हैं सब ताल-तलैया,झूमी है अब धरती मैया,


मेघों ने भी डाला डेरा, छुप गए हैं अब सूरज भैया,


गाय-बैल सब घूम-ग़म कर,बैठे अपनी ठांव,


देखो मेरा सारा गांव,मेरे थिरक उठे हैं पांव।



आपका


शिल्पकार


( चित्र गूगल से साभार)

मेरा हिस्सा





सदियों का मर्ज ही मेरे हिस्से आया,
पत्थरों का कर्ज ही मेरे हिस्से आया।

कलियां चुन ली हैं, माली ने बाग से,
काँटों का जिस्म ही मेरे हिस्से आया।

राज सदियों से उनके लिए ही रहा,
काम दरबानी का ही मेरे हिस्से आया।

कौन सुनता है रिन्दों की महफिल में,
फ़कत खाली जाम ही मेरे हिस्से आया।

बहुत किस्से सुने थे इंसाफ के तुम्हारे ,
मौत का फ़रमान ही मेरे हिस्से आया।




आपका


शिल्पकार

कार्ड ही कार्ड वाह वाह सरकार



















लोकशाही बीमार पड़ी जनरल वार्ड में,
गरीबों की सांसे दर्ज हैं राशन कार्ड में।


सांसें भी गिनकर उन्हें ही मिलेंगी,
जिनका नाम दर्ज है वोटर कार्ड में।


किसान खुदकुशी कर रहे हैं भुखमरी से
मौत उनकी दर्ज होती है किसान कार्ड में ।

अपने हक की मांग जब करो सरकार से,
पहले नाम दर्ज करवाओ मेमोरी कार्ड में ।

बीमार लोकशाही का इलाज कौन करे,
सुना है डाक्टर व्यस्त है पेन कार्ड में।

आपका
शिल्पकार


कोई तो बचाओ मेरे बेटे को....(लक्ष्मन जांगिड सीकर राजस्थान)

राजस्थान के सीकर जिले के श्यामपुर गांव मेंअपनी छोटी सी दुकान लगा कर जैसे-तैसे गुजर बसर करने वाले लक्ष्मन जांगिड के पुत्र करणजांगिड को घर के सामने सडक पार करते हुए एक तेजी से आती हुई बोलेरो गाड़ी ने टक्कर मार दी। इस टक्कर से करण बुरी तरह जख्मी हो गया, उसके दोनों पैर बुरी तरह कुचल गए। सीकर के अस्पताल से इसे एस एम् एस जयपुर भेज दिया गया। जहाँ वो वर्ड २ ऍफ़ में भरती है, इस परिवार ने आर्थिक तंगहाली के बावजूद अपने बच्चे को बचाने में अपनी सारी जमा पूंजी लगा दी। लेकिन दवाएं काफी महंगी होने के कारणअब वे इस इलाज का खर्च उठाने में असमर्थ हैं.पुत्र के साथ घटी इस दुर्घटना ने इन्हे तोड़ कर रख दिया। इनके पास कोई जमीं जायदाद भी नही है। पास-पड़ोसियों से भी कर्जा लेकर इलाज में लगा दिया। अब यह परिवार एक-एक पैसे को मोहताज हो गया है।
(लार्ड विश्वकर्मा इंटरनेशनल टाईम्स पाक्षिक १५ जुलाई टोंक राजस्थान से प्रकाशित)

यह समस्या सिर्फ़ एक कर्ण जांगिड-लक्ष्मन जांगिड के परिवार की नही है। राजस्थान का यह जांगिड समाज वैदिक काल से ही तकनिकी एवं निर्माण का कार्य ही करते आया है। यह समाज तकनिकी की दृष्टी से उन्नत समाज है । जहाँ कंही भी निर्माण होता है उसमे इनकी भागीदारी अवश्य होती है। इनके पास कृषी की जमीने नही होती थी क्योंकि ये तो निर्माण कर्मी तकनिकी वर्ग था, जहाँ भी कम मिला,अपने ओजारों की पेटी उठाई और काम करने चल दिए, इस तरह ये निर्माण की आवश्यकता पर पलायन करते थे। गांव में इनके पास रहने की ही जमीन होती थी। जो राजा महाराजा या जमींदार उपलब्ध कराते थे। मूलत: यह जाती कुशल कारीगर जाती है। ओउद्योगीकरण के कारण कालांतर में निर्माण से सम्बंधित कार्य मशीने करने लगी। इनके हाथ से रोजगार जाते रहा। तत्कालिन सरकारों ने भी इस वर्ग के व्यावसायिक पुनर्वास के लिए कोई ध्यान नही दिया। जिसके कारण यह कुशल कारीगर समाज बिना किसी सरकारी सहायता या कार्यक्रमों के अपने दुर्भाग्य से सिर्फ़ निर्माण के देवता "भगवन विश्वकर्मा" के सहारे ही लड़ रहा है। इस समाज ने इस संसार को तकनिकी रूप से समृद्ध किया है। इंजनियरिंग कालेजों से पहले इनकी वर्कशॉप ही कोलेज हुआ करती थी। जहाँ तकनिकी का गियान मिलता था।
आज इस समुदाय में शिक्षा का भी बहुत आभाव है,जिसके कारण विकास के उजास की किरने अभी तक नही पहुँच पाई हैं। इसका एक मुख्या कारण गरीबी भी है। क्योंकि काम में हेल्पर रख कर उसे मजदूरी देने की बजाय अपने ८-१० साल के बच्चे को ही काम में लगा लेते हैं। पढ़ लिख कर क्या करेगा? ये काम तो करना है। जल्दी सीख लेगा तो बाप बेटे दोनों की कमाई से परिवार की स्थिति सुधरेगी। ये सोच उसके मानस में उपजने लगती है। कम उम्र में ही रंदा ख्निचने के कारण बच्चे का मन भी पढ़ाई में नही लग पाता। आज जिस पञ्च शिल्पी समाज ने सारी दुनिया को सभ्यता के चरम सीमा तक पहुंचाया ,जिसने आकाश की ऊंचाई नापने के साधनों से लेकर समुन्दर की तलहटी तक को खंगालने के साधन दिए वह ही आज अपने अस्तित्व को बचाने की गुहार लगा रहा है। चाँद की धरती पर पहला कदम रखने वाला भी परम्परागत शिल्पी वर्ग से नील आर्म्स कारपेंटर था।
ये कैसी विडम्बना है। इसी लिए मैं कहता हूँ।
{ रोज़ी-रोज़गार पर अगर आंच आए , तो टकराना जरुरी है।
अगर वो समाज जिन्दा है, तो उसे नजर आना भी जरुरी है।}

आपका
शिल्पकार

पाँव के छाले

पाँव के छाले ही, रहे मेरी खातिर,

पाँव के छाले ही, रहे मेरी खातिर,
सूखे निवाले ही, रहे मेरी खातिर।

फ़ूलों की सेज पे, सोते हैं रहनुमा
टाट के बिछौने ही, रहे मेरी खातिर।

ज्म्मुहुरियत के दावे, उनने खूब किए
पर फटे पैजामे ही, रहे मेरी खातिर।

भूखे पेट ही, खुश रहने की सोची,
नश्तर बनाते ही, रहे मेरी खातिर।

बच्चों ने मांगे,जन्मदिन के तोहफे,
वादों के सहारे ही, रहे मेरी खातिर।

फ़ूलों भरी राह होगी, किसी के लिए
कांटों भरे रास्ते ही, रहे मेरी खातिर।


आपका

शिल्पकार

शिल्पकार कहिन

पाठकों,
कुछ बरस पहले एक कवि की कविता सुनी थी, उनका नाम मुझे
याद नही है, ये कविता आप तक पंहुचा रहा हूँ

छींक उनको भी आती है ,
छींक हमको भी आती है ,
उनकी और हमारी छींक मै बड़ा अन्तर है,
हमारी छींक साधारण है , उनकी छींक मै जादू मंतर है,
हमारी छींक छोटे नाक की है, उनकी छींक बड़े धाक की है,
हमारी छींक हवा मै यूँ ही खप जाती है , उनकी छींक आखबारों मै छप जाती है,

हमारे साथ भी ये होता रहा है, इस संसार को बसाने वाले रचाने वाले निर्माण कर्मी समुदाय की पूछ परख करने वाला कोई भी नही है, मेने अख़बारों मै पढा की इंटरनेट पर अपनी बात कहने की एक नई विधा आई है, जिसे ब्लॉग कहते हैं। तो मेने भी सोचा की इस सुविधा का लाभ उठाया जाय और अपनी बात लोगों तक पहुंचाई जाय। मेरे ब्लॉग लिखने से पहले मेने किसी का ब्लॉग नही पढा था, गांव मै रहने के कारन कोई ऐसा भी नही था जो मुझे इसके बरी मै जानकारी देता , एक दिन इंटरनेट पर ये कारनामा मेने कर ही डाला "शिल्पकार के मुख से" नामक ब्लॉग बना ही डाला तथा जो मेरे मन मै आया लिख डाला, कुछ दिनों के बाद पुन: ब्लॉग खोलने पर टिप्पणियाँ नजर आई, उन्हें मेने उत्सुकता के साथ पढ़ा, बड़ा अच्छा लगा, लोगों ने मेरा उत्साह वर्धन किया, एक सज्जन सिर्फ़ नारायण- नारायण कह कर चले गए, मुझे थोडी कोफ्त हुई, उन्हें अच्छी या बुरी कोई भी टिप्पणी करनी चाहिए थी, एक भाई ने लिखा "जब हम सच्ची बात कहते हैं तो जमाने को अखर जाती है" अरे भाई जब सदियों से उपेक्षित प्रताडित समाज का कोई आदमी जब अपने हक के लिए खड़ा होता है तो सामन्तवादी विचार धाराओं के लोगों को कहाँ सहन होगा?
लेकिन अब भारत के १४ करोड़ परम्परागत शिल्पकारों को भी अपने हक के लिए खड़ा होना ही पड़ेगा। आजादी के ६० सालों मै हमे क्या मिला, पुरे भारत मै विस्वकर्मा वंशियों के इतने बड़े समाज मै इस समाज का एक भी आदमी दिल्ली की बड़ी पंचायत मै हमारी बात कहने को नही है, हमारी प्रताड़ना सुनने वाला कोई नही है, जबकि ये समाज हमेसा से एक योगी की तरह निर्माण की अपनी साधना मै लगा रहा है। अनवरत समाज के लिए अपना खून और पसीना बहते रहा है, इसने कभी सर्दी - गर्मी- बरसात -आग- शोलों की चिंता नही की। क्योंकि इसके शरीर मै छेनी हथौडेकी धवनी से ही रक्त का संचार होता है, मैंने भी ये काम किया है। लेकिन अब इस समाज को जगाना ही होगा, ओउद्योगिक कर्ण के कारन इस समाज खानदानी पेशा ख़तम हो गया है। अब इसके सामने रोजी-रोटी की समस्या खड़ी हो गयी है। परम्परागत रूप से काम करने वाले सभी समाजों का येही हॉल है।
छत्तीसगढ़ मै एक समुदाय है जो सदियों से बुनकारी का काम करते रहा था। "पनिका समाज" जिसे लोग यहाँ पर "मानिकपुरी समाज" के नाम से भी जानते हैं। मुझे लग-भग ४०० परिवारों से मिलने का सौभाग्य मिला। आज ये लोग बहुत ही गरीबी मै जीवन बसर कर रहे हैं। किसी के घर मै भी कपड़ा बनने का कम नही होता। क्योंकि मशीनों के बने कपड़े बाजार मै हैं तो इनके हाथ से बने कपड़े कौन खरीदेगा? आज भारत के सभी कुशल कारीगरों की येही दशा है, जिस तरह सभी समाजों कोमिलाकर इस देश का निर्माण हुवा है, उसी तरह हमारा भी इसमे योगदान है। परम्परागत शिल्पकार वर्ग के लोगों को मुलभुत संविधान प्रदत्त सुविधाएं भी नही मिल पाई हैं। २४ जुलाई को जी छत्तीसगढ़ पर कोरिया जिला की नाथारेली पंचायत के बैजनाथ विश्वकर्मा का समाचार दिखाया गया था। जिसमे बताया की वह ११ सदस्यों के परिवार के साथ एक १० गुना १०फुट की झोपडी मै निवास करता है। तथा पत्थर के सिल बनाने का काम करता है। उसके बच्चे स्कूल नही जाते उसके साथ काम मै हाथ बताते हैसरकारी योजनायें इस परिवार से कोसो दूर हैये शिल्पकार समुदाय पुरे भारत मै भीषण गरीबी मै जीवन बसर कर रहा हेअभी मुझे जानकारी मिली थी की महाराष्ट्र मै एक पंचाल युवक को दबंगो ने मार डालाइसके बाद भी कोई "नारायण-

नारायण" कह कर उपहास करे ये ठीक नही है

(प्रतिक्रियाएं आमंत्रित हैहम तो आपके सहयोग के आकांक्षी हैं।,)

आपका

शिल्पकार

 

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