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रफ़्तार
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गुगल बाबा

इंडी ब्लागर

 

कुछ मुक्तक मेरे,तुम्हारे लिए


देख  कुछ गुलाब लाया हूँ  तेरे लिए 
तोहफे  बेहिसाब लाया  हूँ  तेरे लिए
चश्मेबद्दूर नज़र ना लगे  तुझे कभी
इसलिए नकाब भी लाया हूँ तेरे लिए


अभी तो आई अभी ही चली गयी 
जिन्दगी कैसे  छलती  चली गयी
घूँघट उठाया जैसे ही दुल्हन  का
बड़ी बेवफा थी बिजली चली  गई



मेरे शहर में कई इज्ज़त वाले  रहते हैं
लेकिन वो  इज्ज़त  देते  नहीं हैं ,लेते हैं
दो रोटियों का खुशनुमा अहसास देकर 
हमारे  तन  के  कपडे  भी  उतार लेते हैं


शाम  से  सोचता   रहा  माज़रा  क्या हैं
चाँद हैं   अगर तो  निकलता क्यूँ नहीं  हैं 
कब तक रहेगा यूँ ही इंतजार का आलम 
क्या नया चाँद कारखाने में ढलता नहीं हैं


तपती  धुप   में  छाँव  को तरसती हैं जिंदगी
भागते शहर में गांव को तरसती हैं  जिन्दगी 
शहर जला था जब से दंगे की आग में लोगो 
उस बूढे बरगद की छावं को तरसती हैं जिंदगी


ललित शर्मा 




Comments :

1
निर्मला कपिला ने कहा…
on 

चश्मेबद्दूर नज़र ना लगे तुझे कभी
इसलिए नकाब भी लाया हूँ तेरे लिए
बहुत बडिया बधाई

 

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