के भट्ठे पर
वह चितकबरे
पेबंद में लिपटी
ढो रही थी
इंटों का बोझा
खा रही थी
इंटों का लाल रंग
मिटटी से सनी रोटियां
कंकरों के साग के साथ
जब से ब्याही थी
चिमनी के धुंए के साथ
उसकी दुनिया सिमट गई थी
धूल से सनी वो
किसी फिलम एक्टोरनी सी लगती थी
जैसे किसी मजदूरों की
दर्द भरी कहानी पर
सच्चा अभिनय कर रही हो
लेकिन ये हकीकत से कोसों दूर था
ये तो मै सोच रहा था
वो तो फंस चुकी थी
माया के जाल मै
खनकते सिक्के की चाल में
रोटी की खातिर
चाहे वो माटी की ही क्यों ना हो
आख़िर रोटी ही थी
आपका
शिल्पकार
(फोटो गूगल से साभार)
बहुत गहरे भाव लिये मार्मिक अभिव्यक्ति शुभकामनायें