हमारे गांव में एक होटल हैं बस स्टेंड में उसके मालिक बहुत ही सज्जन हैं,एक अघोषित वैराग उन पर हमेशा
चढा रहता हैं ,जब भी जाओ तो वे अपने ध्यान में ही मगन रहते हैं,उनको सुबह उनके घर के लोग याद दिलाते
हैं के"चलो सुबह हो गयी हैं अब जाकर ढाबा खोलना हैं,तब वो ढाबा पहुचते हैं,रात को जब घर के लोग उनको
बुला कर ले जाते हैं,तब ढाबा बंद होता हैं,खाके कोई पैसा दिया तो ठीक नहीं दिया तो ठीक,वैसे भी अधिकतर
उधारी वाले ही उनके ढाबे में आते हैं,थोडी तारीफ किये उनके ज्ञान की भक्ति की,और नास्ता किये चाय पिए
अपना खाए पिए और चल दिए,बहुत दिन से मैं देख रहा था,एक दिन मेरे दिल से उनके लिए कुछ पंक्तियाँ निकल
पड़ी वो आज विशेष रूप से आप लोगों के साथ बाँटना चाहता हूँ,कृपया मेरे साथ भी आप ढाबा चलकर आनंद लें
ये चाय समोसा गरम
उधार खाते रहे हरदम
आप पैसे ना दें
यहाँ से ना टलें
ताकि फूटे हमारे करम
ये चाय समोसा गरम ....
वो जलेबी तला जा रहा
वो हंस-हंस के हलवा खा रहा
खोवे का हैं ये माल
फूल गये हैं वे गाल
उसपे गुस्सा बड़ा आ रहा
खा रहा हैं कचौरी गरम
कहाँ बेच डाली हैं शरम
आप पैसे ना दे
यहाँ से ना टलें
ताकि फूटे हमारे करम
ये चाय समोसा गरम......
तुमने जब से समझा हैं
अपना हैं माल
तब से बिगाडा हैं अपना ये हाल
आते जाते रहे
रोज खाते रहे
उधार खा के किया हैं कंगाल
कहाँ गिरवी रखी हैं शरम
उधार खाते रहे हरदम
आप पैसे ना दें
यहाँ से न टलें
ताकि फूटे हमारे करम
ये चाय समोसा गरम..........
आपका
शिल्पकार
(फोटो गूगल से साभार)
बहुत सुन्दर संसमरण और साथ ही सुन्दर कविता.
कमाल का व्यक्तित्व है ढाबे वाले का.
भाई साब सुबह सुबह चाय समोसा गरम क्या बात हैं,
बहुत ही मजेदार रचना हैं,
भाई साब ढाबे का पता देना
this is very good and intresting to read a poem.
bahoot khoob !
bahoot acchi hai mene pathi hai. it is intresting