सुबह तुम्हारे संदेश ने जगा डाला
मेरे अरमानों को खूब हिला डाला
मेने तो तुम्हे सिर्फ़ कुछ फूलभेजे
तुमने तो पूरा गुलदस्ता बना डाला
दुनिया में क्या-क्या नही सहा है हमने
सबकी नफरत का मोल दिया है हमने
लोगों ने जितने भी पत्थर फेंके थे मुझ पर
उतना हिस्से का प्यार तोल दिया है हमने
न गीत लिखा न गजल लिख सका
सिर्फ़ तुम्हारी यादों में ही डूब गया था
तुम हो गई हो मेरी आंखों से ओझल
जब हाथों से आँचल तेरा छुट गया था
मुसाफिर हूँ मैं चार दिन चलने आया हूँ
नित सूरज सा हर शाम ढलने आया हूँ
दो दिन ढल गए तुम्हे ढूंढने में ही
दो दिन प्यार की छाँव में पलने आया हूँ
खनकती हंसीं तेरी जलतरंग सी बजती थी
आंचल की सुनहरी किरणों से सुबह सजती थी
उस सुबह को बरसों से जैसे तरस ही गये हम
जो दिल पर हाथों की मेहँदी सी रचती थी
आपका
शिल्पकार
(फोटो गूगल से साभार)
जो दिल पर हाथों की मेहँदी सी रचती थी
ब्लॉ.ललित शर्मा, मंगलवार, 15 सितंबर 2009
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मुसाफिर हूँ मैं चार दिन चलने आया हूँ
नित सूरज सा हर शाम ढलने आया हूँ
दो दिन ढल गए तुम्हे ढूंढने में ही
दो दिन प्यार की छाँव में पलने आया हूँ
सुन्दर अभिव्यक्ति...वाह...
नीरज
मुसाफिर हूँ मैं चार दिन चलने आया हूँ
नित सूरज सा हर शाम ढलने आया हूँ
दो दिन ढल गए तुम्हे ढूंढने में ही
दो दिन प्यार की छाँव में पलने आया हूँ
बहुत सुन्दर रचना है बधाई