हंसा चल रे अपने देश
ऊँची उडान भर नील गगन की रहे न कुछ भी शेष
हंसा चल रे अपने देश
यहाँ नहीं हैं कोई अपना सारा जग बीराना
सारे हैं सब झूठे नाते नहीं हैं कोई ठिकाना
बहरुपीयों की नगरी में धर ले असली भेष
हंसा चल रे अपने देश
कैसे उडेगा कागा मन का भिष्ठा में बैठा हैं
करके अपनी मोती चमड़ी कीचड़ में लेटा हैं
उसकी पाती आके अब तो मेटे सारे क्लेश
हंसा चल रे अपने देश
सुना ठाठ पड़ा रहा जाये हंसा छोड़ चले जब काया
सारा ठाठ दारा रहा जाये ऐसी हैं सब उसकी माया
जहाज का पंछी मूड के आये रखे न किसी का द्वेष
हंसा चल रे अपने देश
ऊँची उडान भर नील गगन की रहे न कुछ भी शेष
हंसा चल रे अपने देश
आपका
शिल्पकार
हंसा चल रे अपने देश
ब्लॉ.ललित शर्मा, शनिवार, 19 सितंबर 2009
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
उत्तम भाव........सूफी अंदाज़..........सन्त वाणी सा संदेश
अच्छा गीत........बधाई !
एक यथार्थ भाव..उम्दा रचना.
बहुत सुन्दर कविता है भाई, भाव गहरे हैं. आभार भाई.
बहुत ही अच्छी रचना ,बहुत अच्छे भाव . .