मुझे अब नंगे, पाँ व ही चलने दो,
जूतियों का इंतजार, अब कौन करेगा?
तपती दुपहरी को, और भी चढ़ने दो,
छतरियों का इंतजार,अब कौन करेगा?
पाँव के छालों को, और भी बढ़ने दो
मरहम का इंतजार, अब कौन करेगा?
इन आंसुओं को, यूँ ही बह जाने दो,
रुकने का इंतजार, अब कौन करेगा?
मुझे अब तुम जिन्दा ही जला डालो,
मौत का इंतजार अब कौन करेगा?
आपका
शिल्पकार
(फोटो गूगल से साभार)
बहुत मार्मिक रचना है,खेतीहर मजदुरों एवम किसानों की हालत दयनीय है,आपकी कवि्ता सोचने पर मजबुर करती है,बढिया।
बहुत खुब बधाई,बहुत गहरे भाव है,स्वागत है
आपमे एक दर्द को उकेरन की क्षमता है उसका खुबसुरत उदाहरण है, बधाई
शुक्रीया सुनील भाई हौसला अफ़जाई के लिए,
आपका स्नेह ही हमारे लिए बहुत है,
आते रहीए
धन्यवाद देव जी आपकी टिपप्णी मेरा उत्साह बढाती है,
आते रहीए
धन्यवाद जी एल शर्मा जी,आते रहीए,
अच्छा लिखा ललित जी।
इतनी अच्छी भावपूर्ण रचना के लिए आपको बहुत बहुत बधाई .
इतनी अच्छी भावपूर्ण रचना के लिए आपको बहुत बहुत बधाई .
ाज के हालात मे जो जी रहा है वो जिन्दा ही तो जल रहा है ।बहुत मार्मिक अभिव्यक्ति है शुभकामनायें
धन्यवाद अनिल भैया,शिल्पकार आपके आने से खुश हुआ,फ़िर आईयेगा,
dhanyavad nirmala kapila ji, aaj aapki kahani padhi hai,aage ke bhag ka intjar hai/
कुसुम ठाकुर जी धन्यवाद आपको मेरी कविता पसद आने का,आपका पुन: स्वागत है,
बहुत ही दर्द छिपा होता है किसानो के ह्रदय में आपने उसे बहुत ही खूबसूरती से प्रस्तुत किया है अपने ब्लाग के माध्यम से !आपको बहुत बहुत बधाई
aapko dhayvad rakesh ji,aapka svagat hai,
mere blog pr