इस बहती नदी को
इसके दोनों किनारों को
बरसों से देखता आ रहा हूँ
इनके अथाह प्रेम का
एक मूक दर्शक मैं भी हूँ
इनकी मुहब्बत
सदियों से प्रेरणा रही है
बनजारों के लिए
कभी कभी
मैं नदी से कहता हूँ
तू क्या सूख नहीं सकती
सदियों से दो दिलों को
मिला नहीं सकती
तू कितनी बेदर्द है
इनकी आहें लेकर
अपना अस्तित्व देखती है
तेरा ये कैसा बैर है इनसे
जो सदियों-शहस्त्राब्दियों से
चला आ रहा है
ये भी बड़े ढीठ प्रेमी है
जो तुझे भी नहीं छोड़ते हैं
तू ये क्यों भूल जाती है
किनारे हैं तभी तो
तेरा अस्तित्व है
ये सिर्फ तेरे लिए जीते हैं
कितना महान व्यक्तित्व है
इनको मिला दे तू
किस्से कहानियों में
ढाली जायेगी
जब तक दुनिया है
ये तेरे ही गीत जायेगी
इस नश्वर लोक में
तू भी अमर हो जायेगी
आपका
शिल्पकार
फोटो गूगल से साभार
बहुत खूब आपके इस शिल्प को पढ कर तो हम हैरान हो कर रह गये जी...बहुत ही सुंदर..आभार ...