पाँव के छाले ही, रहे मेरी खातिर,
सूखे निवाले ही, रहे मेरी खातिर
फूलों के बिछौने रहे, उनके ही घर तक
टाट के बिस्तर ही , रहे मेरी खातिर
बच्चों ने जब मांगे, जन्मदिन के तोहफे
सर्द आहों के नाले, ही रहे मेरी खातिर
जम्मुहरीयत के दावे, खूब हुए थे लेकिन
हरदम फटे पैजामे , ही रहे मेरी खातिर
जब भूखे पेट ही, खुश रहने की सोची
जब भूखे पेट ही, खुश रहने की सोची
तो नश्तर चुभोने वाले, ही रहे मेरी खातिर
आपका
शिल्पकार
फोटो गूगल से साभार
ललित भैया, बहुत बढिया गजल श्रमिक भाईयों का दु:ख दर्द संजोते हुए। बधाई
उम्दा गजल, श्रमशील हाथों को समर्पित,
समाज की सच्चाईयों को दर्शाती मार्मिक गज़ल..
बधाई,स्वागत है, बहुत सुन्दर लेखन
जम्मुहरीयत के दावे, खूब हुए थे लेकिन
हरदम फटे पैजामे , ही रहे मेरी खातिर
जब भूखे पेट ही, खुश रहने की सोची
तो नश्तर चुभोने वाले, ही रहे मेरी खातिर
एक गरीब् के जीवन का सच बहुत अच्छी रचना है शुभकामनायं
धन्यवाद राजीव जी,शुभकामनाए,स्नेह बनाये रखें
धन्यवाद निर्मला जी-आपका आशीष पाकर हम धन्य हुए। शुभकामनाएं
धन्यवाद सुनील भाई आपको शुभकामनाएं
धन्यवाद जी एल शर्मा जी,शुभकामनाएं
बहुत बढिया .. सुंदर रचना के लिए धन्यवाद !!
बच्चों ने जब मांगे, जन्मदिन के तोहफे
सर्द आहों के नाले, ही रहे मेरी खातिर.nice
बहुत बढिया व सुन्दर रचना है।बधाई।
धन्यवाद संगीता पुरी जी आप स्नेह बनाये रखें
आपका स्वागत है।
सुमन जी लोकसंघर्ष में हम साथ है, वंचित को न्याय मिलना चाहिए। बहुत ही उद्देश्य पुर्ण नाम है आपके ब्लाग का,स्वागत है। स्नेह बनाये रखें
परमजीत जी तुहानु पैरी पैणा। ए फ़ोटु तुस्सी कित्थों लाई है मैनु ते अचंभा हो रह्या सी। एक बारी दस ते दओ सानु।
अच्छी रचना............
सुगठित रचना...........
सामयिक रचना........
_______अभिनन्दन आपका.........
अच्छी रचना............
सुगठित रचना...........
सामयिक रचना........
_______अभिनन्दन आपका.........
धन्यवाद अलबेला जी,आभार
वाह! वाह! ललित भाई!
पाँव के छाले ही, रहे मेरी खातिर,
सूखे निवाले ही, रहे मेरी खातिर
आप की गजल का मतला ही बडा़ शानदार है।
मानवीय करुणा स्रोत फूटा है -इसमें
अच्छी गजल के लिए बधाई स्वीकारें !
-डॉ० डंडा लखनवी