एक ढेला मिटटी उखड़ती
मिटटी नही लेट्र्रा था वह
कमर झुक कर कमान हो रही थी
माथे पर पसीने की बुँदे चूह रही थी
तभी फ़िर गैंती की मार से
एक ढेला लेट्र्रा उखाड़ता
उसे रांपा से चरिहा में भरता
बुधियारिन के माथे पर धरता
एक गोदी माटी वह कोड़ता
नई श्रृष्टि रचता
भाषण और नारों से दूर
चूल्हे पर हंडिया में भात चुरती वह
सबको खिला कर लांघन रह जाती वह
फ़िर भी दुगने ताकत से चरिहा उठती वह
आज के लांघन से बचने के लिए
उसकी गैंती की धमक से
धरती हिलती,
ब्रह्माण्ड हिलता
ब्रह्माण्ड हिलता
उसकी बाँहों के बल से
नई सुबह,नया उजाला
उससे दूर था ,
कौन था यह?
मेरे देश कर्मरत
मजदूर था
आपका
शिल्पकार
शब्दार्थ
गैंती = कुदाली
लेट्र्रा-लाल कड़ी मिटटी
रांपा=फावडा
चरिहा=मिटटी उठाने की टोकनी
चुरती= बनती
लांघन=भूखी/भूखा
(फोटो गूगल से साभार)
श्रम व श्रमिक की बढ़िया महत्ता समझाई है |
धन्यवाद रतन सिंग जी,ये कविता छत्तिसगढी कलेवर मे गढी गयी है,आप पुन: आयें आपका स्वागत है,
ललित भाई एक मजदुर के दर्द को आपने अपनी कविता मे ढाला है,बहुत-बहुत शुभकामनाएं,छत्तिसगढ संवाद की तरफ़ से बधाई
lalit bhaiyaa, subah-subah aapki majdoron ko samrpit kavita padhane mili aapko bahut-bahut badhai
ललित भैया स्वागत है,बधाई हो,आज कल तो काफ़ी धाँसु कविता का कार्य क्रम चल रहा है, शुभ कामना
dhanyavad sunil bhai,aap isi tarah utsah badhate rhen,
dhanyavad uday ji aapko bhi meri shubhkamnayen
dhanyavad dev ji aapka svagat hai,
नई सुबह,नया उजाला
उससे दूर था ,
कौन था यह?
मेरे देश कर्मरत
मजदूर था
bahut badhiya,badhaai
किसानों,मज़दूरों की स्थिती को समझने और जानने वाले अब रह कितने गयें है ललित बाबू।बहुत अच्छा लिखा है आपने।
कोई तो समझेगा?आज अनाज इतना महँगा हो गया है कि नई समझने वालों को भी समझना होगा, ये ही एक सामान है जो फ़ैक्ट्रीयों मे नही पैदा होता, धरती पर ही उगता है,कुछ दिनो बाद इससे भी बुरे दिन आने वाले हैं। धन्य्वाद अनील भैया
आपको भी शुभकामनाए।
निराला जी की कविता का स्मरण हो आया आपकी इस रचना को पढ़कर.....क्या खूब लिखा है आपने....पीडा और त्रासदी को शब्दों में जीवंत और अमर कर दिया आपने...
इस अप्रतिम अद्वितीय रचना के लिए आपका साधुवाद...