उस शाम
बढ़ चले थे
मेरे कदम
अज्ञात पथ की ओर
दिशा हीन मैं
तुमने कहा
मत जाओ
बहुत कांटे है इस राह पर
लेकिन प्रिये
कैसे भूल जाऊँ?
उन ह्रदय भेदी शब्दों को
कैसे भूल जाऊँ?
उस दासता को
कैसे भूल जाऊँ?
उस कबीले के
कानून को
जिसका पालन करना ही
मेरी विरासत हैं
कैसे भूल जाऊँ?
उस कर्कश वाणी को
जिसने जिस्म चीर
हृदय छलनी किया है
मै वो परकटा पंछी
उस डाल पर बैठा
जिसके एक तरफ कुँआ
एक तरफ खाई है
कदम आगे बढाऊ तो मरा
पीछे हटाया तो मरा
काश! ये धरती ही फट जाती
उसमे समां जाती
सीता की तरह
जहाँ फिर ना कोई
अग्नि परीक्षा होती
बढ़ जाती उस अंतहीन
पथ की ओर
जहाँ सिर्फ मै होती
और सिर्फ मै होती
आपका
शिल्पकार
(फोटो गूगल से साभार)
उस दासता को
कैसे भूल जाऊँ?
उस कबीले के
कानून को
जिसका पालन करना ही
मेरी विरासत हैं
कैसे भूल जाऊँ?
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काश! ये धरती ही फट जाती
उसमे समां जाती
सीता की तरह
जहाँ फिर ना कोई
अग्नि परीक्षा होती
बढ़ जाती उस अंतहीन
पथ की ओर
जहाँ सिर्फ मै होती
और सिर्फ मै होती
बहुत भावमय रचना है औरत के लिये तू पूरा जीवन अग्निपरीक्षा है शुभकामनायें
निर्मला जी आपका स्नेह ही हमारी अक्षय पुंजी है,
आशीर्वाद बनाए रखिए,
स्वच्छ हिन्दोस्तान की ही जरुरत है हमे धन्यवाद
ललित जी काफी मेहनत किया होगा आपने ऐसे अद्भुत रचना लिखने के लिए धन्यवाद
भाई जी,
एक बेहतर कविता....
पर गहरे रंग की पृष्ठभूमि में काले रंग में अक्षर पहले तो दिखे ही नहीं ( जैसे कि मैं थोड़ा चमक कम ही रखता हूं )...
जब चमक बढ़ाई तो कविता नमूदार हुई...वरना फोटो ही दिखता था...
या तो पृष्थभूमि हल्की करें...या शब्दों को हल्का करें....