बचपन में देखा था
गलियारे के घरों में
साथिये मंडे हुए
किसी बटेऊ के आने पर
स्वागत करते हुए
गांव की गलियां
खड़ी रहती थी हरदम
हुक्का-पानी की
महफिलें जमती थी
आज साथिये गूंगे हो गये
देख कर भी नही बोलते
मूकदर्शक हो गए
बटेऊ आते जाते हैं
कोई उनकी बाट नही देखता,
कहीं हुक्का नही
कहीं महफ़िल नही गांव में
साथिये गूंगे हो गए
शहरी हो गए
लील गया शहर, गांव को भी,
चिमनियों के धुंए से
मुख पर कालिख पुती कालिख से
आँखें धुंधला गयी
मोतियाबिंदी आखें,
नहीं देख सकती
नहीं देख सकती
बटेऊ को
कुंए की मुंडेर पर
काला कागा भी नहीं दीखता
साथिये मूक हो गए हैं
देखकर भी नहीं बोलते
चिमनियों के धुंए से
मुख पर कालिख पुत गयी है
आँखें धुंधला गयी हैं
नहीं देख सकती
वे बटेऊ को
कुंए की मुंडेर पर
काला कंउवा भी नहीं दीखता
साथिये मूक हो गए हैं
देखकर भी नहीं बोलते
सिर्फ अपने शहरीपन का
अहसास कराते हैं।
आपका
शिल्पकार
(foto google se sabhar)
शब्दार्थ
साथिये=गांव में दीवालों पर बनाये जाने वाला स्वस्तिक
बटेऊ=मेहमान
मंडे=बने
bahut aachi kavita hai
सचमुच यही महसूस होता है.