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कोई तो बचाओ मेरे बेटे को....(लक्ष्मन जांगिड सीकर राजस्थान)

राजस्थान के सीकर जिले के श्यामपुर गांव मेंअपनी छोटी सी दुकान लगा कर जैसे-तैसे गुजर बसर करने वाले लक्ष्मन जांगिड के पुत्र करणजांगिड को घर के सामने सडक पार करते हुए एक तेजी से आती हुई बोलेरो गाड़ी ने टक्कर मार दी। इस टक्कर से करण बुरी तरह जख्मी हो गया, उसके दोनों पैर बुरी तरह कुचल गए। सीकर के अस्पताल से इसे एस एम् एस जयपुर भेज दिया गया। जहाँ वो वर्ड २ ऍफ़ में भरती है, इस परिवार ने आर्थिक तंगहाली के बावजूद अपने बच्चे को बचाने में अपनी सारी जमा पूंजी लगा दी। लेकिन दवाएं काफी महंगी होने के कारणअब वे इस इलाज का खर्च उठाने में असमर्थ हैं.पुत्र के साथ घटी इस दुर्घटना ने इन्हे तोड़ कर रख दिया। इनके पास कोई जमीं जायदाद भी नही है। पास-पड़ोसियों से भी कर्जा लेकर इलाज में लगा दिया। अब यह परिवार एक-एक पैसे को मोहताज हो गया है।
(लार्ड विश्वकर्मा इंटरनेशनल टाईम्स पाक्षिक १५ जुलाई टोंक राजस्थान से प्रकाशित)

यह समस्या सिर्फ़ एक कर्ण जांगिड-लक्ष्मन जांगिड के परिवार की नही है। राजस्थान का यह जांगिड समाज वैदिक काल से ही तकनिकी एवं निर्माण का कार्य ही करते आया है। यह समाज तकनिकी की दृष्टी से उन्नत समाज है । जहाँ कंही भी निर्माण होता है उसमे इनकी भागीदारी अवश्य होती है। इनके पास कृषी की जमीने नही होती थी क्योंकि ये तो निर्माण कर्मी तकनिकी वर्ग था, जहाँ भी कम मिला,अपने ओजारों की पेटी उठाई और काम करने चल दिए, इस तरह ये निर्माण की आवश्यकता पर पलायन करते थे। गांव में इनके पास रहने की ही जमीन होती थी। जो राजा महाराजा या जमींदार उपलब्ध कराते थे। मूलत: यह जाती कुशल कारीगर जाती है। ओउद्योगीकरण के कारण कालांतर में निर्माण से सम्बंधित कार्य मशीने करने लगी। इनके हाथ से रोजगार जाते रहा। तत्कालिन सरकारों ने भी इस वर्ग के व्यावसायिक पुनर्वास के लिए कोई ध्यान नही दिया। जिसके कारण यह कुशल कारीगर समाज बिना किसी सरकारी सहायता या कार्यक्रमों के अपने दुर्भाग्य से सिर्फ़ निर्माण के देवता "भगवन विश्वकर्मा" के सहारे ही लड़ रहा है। इस समाज ने इस संसार को तकनिकी रूप से समृद्ध किया है। इंजनियरिंग कालेजों से पहले इनकी वर्कशॉप ही कोलेज हुआ करती थी। जहाँ तकनिकी का गियान मिलता था।
आज इस समुदाय में शिक्षा का भी बहुत आभाव है,जिसके कारण विकास के उजास की किरने अभी तक नही पहुँच पाई हैं। इसका एक मुख्या कारण गरीबी भी है। क्योंकि काम में हेल्पर रख कर उसे मजदूरी देने की बजाय अपने ८-१० साल के बच्चे को ही काम में लगा लेते हैं। पढ़ लिख कर क्या करेगा? ये काम तो करना है। जल्दी सीख लेगा तो बाप बेटे दोनों की कमाई से परिवार की स्थिति सुधरेगी। ये सोच उसके मानस में उपजने लगती है। कम उम्र में ही रंदा ख्निचने के कारण बच्चे का मन भी पढ़ाई में नही लग पाता। आज जिस पञ्च शिल्पी समाज ने सारी दुनिया को सभ्यता के चरम सीमा तक पहुंचाया ,जिसने आकाश की ऊंचाई नापने के साधनों से लेकर समुन्दर की तलहटी तक को खंगालने के साधन दिए वह ही आज अपने अस्तित्व को बचाने की गुहार लगा रहा है। चाँद की धरती पर पहला कदम रखने वाला भी परम्परागत शिल्पी वर्ग से नील आर्म्स कारपेंटर था।
ये कैसी विडम्बना है। इसी लिए मैं कहता हूँ।
{ रोज़ी-रोज़गार पर अगर आंच आए , तो टकराना जरुरी है।
अगर वो समाज जिन्दा है, तो उसे नजर आना भी जरुरी है।}

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