एक ढेला मिटटी उखड़ती
मिटटी नही लेट्र्रा था वह
कमर झुक कर कमान हो रही थी
माथे पर पसीने की बुँदे चूह रही थी
तभी फ़िर गैंती की मार से
एक ढेला लेट्र्रा उखाड़ता
उसे रांपा से चरिहा में भरता
बुधियारिन के माथे पर धरता
एक गोदी माटी वह कोड़ता
नई श्रृष्टि रचता
भाषण और नारों से दूर
चूल्हे पर हंडिया में भात चुरती वह
सबको खिला कर लांघन रह जाती वह
फ़िर भी दुगने ताकत से चरिहा उठती वह
आज के लांघन से बचने के लिए
उसकी गैंती की धमक से
धरती हिलती, ब्रह्माण्ड हिलता
उसकी बाँहों के बल से
नई सुबह,नया उजाला
उससे दूर था ,
कौन था यह?
मेरे देश कर्मरत
मजदूर था
आपका
शिल्पकार
शब्दार्थ
गैंती = कुदाली
लेट्र्रा-लाल कड़ी मिटटी
रांपा=फावडा
चरिहा=मिटटी उठाने की टोकनी
चुरती= बनती
लांघन=भूखी/भूखा
(फोटो गूगल से साभार)
KAVITA KA RAS HAI DARD HAI