कुछ बुँदे स्वाति मेह की
अनायास ही टपक गई
उसने उठ कर अंगडाई ली
सभी बंधन चरमरा गए
जोड़ के टांके भी चटक गए
जनम रहा था नया वृक्ष
मै आनंदित था कि
अपनी ही शाख को
धरती के सीने में जड़ें रोपकर
पुष्पित पल्लवित होते देखूंगा
एक सिरहन सी रगों में दौड़कर
मेरे रोंगटे खड़े कर देती है
जरा को यौवन कि अनुभूति
कसक सी जाती है,
खीसें निपोरता हुआ यौवन
जर्जर बुढापे को देखता है
बुढापा यौवन का भविष्य है
यौवन बुढापे का इतिहास है
कितना विरोधाभास है दोनों में
फ़िर भी सामंजस्य है
दोनों गुजर जाते हैं
अपनी-अपनी गति कि ओर
काल को रौंदते हुए
आपका
शिल्पकार
(फोटो गूगल से साभार)
अच्छा ब्लॉग है मेरे भाई...
श्रमशील हाथों को समर्पित...
आपके सरोकार स्पष्ट हैं...
और लेखन में काफ़ी संभावनाएं...
beautiful poem. lalit ji ka kavya nikarara cahla ja raha hai. aap ki kavita uche aayam ko chuti hai