जुगरी को देखता था मैं
बचपन से /उसके पीछे
दौड़ता चला जाता था मै
निरंतरता का पैमाना थी वह
भैंस की सानी व दूध से लेकर
पीसने तक
जग्गू के खाने कपड़े से लेकर
सुक्खी के स्कूल जाने तक
चलती रहती वह
महामाया थी वह /माँ थी वह
उपलों की थाप की लय से
सरकंडों की तान तक
उसकी नौगजी मुस्कान
तनी रहती थी
कभी न थकती थी वह
मैं हमेशा उसका हमसाया
बना रहता
नींद से उठ कर
मन्दिर की आरती से लेकर
शाम के भजनों तक
मैं पढने चला गया
गांव पहुचने पर जुगरी मिली
एक लंबे समय के बाद
मैं पहचान नही सका
काले बाल
धूसर हो गए थे
लटें उलझी हुई थी
वह मुझे मिली कुंए पर ही
मेरे जाने के बाद
जग्गू शहर चला गया था
उसकी राह में
पथरा गई थी
बावली हो गयी थी वह
जब उसे सुक्खी का
कफ़न मांगना पड़ा
शहर उसका रंग ले गये
फ़िर भी जुगरी चल रही है
आज भी
निरंतर/अनवरत
भैंस की सानी से
कुंए की जगत तक
आपका
शिल्पकार
(फोटो गूगल से साभार)
शहर उसका रंग ले गये
फ़िर भी
जुगरी चल रही है
आज भीनिरंतर/अनवरत
अद्भुत भाव... नमन आपकी भावनाओं और कलम को...