जाग रे,जाग रे,जाग रे मनवा जाना है उस पार
करके अपनी खाली कुटिया,अब हो जा तैयार
रे! मनवा जाना है उस पार
हुई सांझ तो रात-रानी, ले आई खुशबु का हार
महका ले तु अपना मन,खोल ह्रदय के द्वार
रे! मनवा जाना है उस पार
गई रात तो आया सवेरा, ले किरण उपहार
मिल जायेगा तुझे किनारा,अब धरले पतवार
रे! मनवा जाना है उस पार
इस नदिया के दो पार हैं,हमरे प्रियतम उस पार
चलते-चलते बढ़ते जाना,धर प्रियतम का ध्यान
रे! मनवा जाना है उस पार
अपने सपने छलते जाएँ,तुझको अनगिन बारम्बार
जो जागेगा,वो कर पायेगा, अपने प्रियतम का दीदार
रे! मनवा जाना है उस पार
चमकेंगे तब हजारों सूरज,भूल जायेगा तु संसार
आनंद रस की लहर उठेगी,जा प्रियतम के द्वार
रे! मनवा जाना है उस पार
आपका
शिल्पकार,
फोटो गूगल से साभार
सुन्दर गीत ललित जी, पर ये मनवा के ही भरोशे पतवार में मत बैठ जाना, क्योंकि आजकल ये मनवा भी भरोशे के काबिल नहीं रहे !
गोदियाल साब,जब मांझी आप जैसा तगड़ा हो तो
बिना पतवार के भी नाव पार लग जाती है, पतवार नही आत्मबल चाहिए। आभार
कईसे महाराज?ये प्रियतम का दीदार कोई लफ़ड़ा-वफ़ड़ा तो नही है ना। हा हा हा हा हा।
सुन्दर गीत के लिये बधाई
अपने सपने छलते जाएँ,तुझको अनगिन बारम्बार
जो जागेगा,वो कर पायेगा, अपने प्रियतम का दीदार
रे! मनवा जाना है उस पार
वाह ललित जी वाह मस्त है साहब जी ये उपदेशात्मक रचना
नही गा,अनिल भैया,कौउनो लफ़ड़ा वफ़ड़ा नैइ ए बबा, जम्मो बुता हां तोरे जैइसे हवे, जईसन गुरु तईसन चेला-तोरे पाछु-पाछु रेंगत हन गा।
धन्यवाद पंकज मिसिर जी-आभार
चमकेंगे तब हजारों सूरज,भूल जायेगा तु संसार
आनंद रस की लहर उठेगी,जा प्रियतम के द्वार
बहुत खूबसूरत रचना --- आनन्द रस की लहर उठाती.
वाह
वाह ललित जी…………जिसने मन को साध लिया उसका तो बेडापार है ही…………बस इसी को जगाते रहना चाहिये।