हरियाली के चादर ओढे, देखो मेरा सारा गांव ,
झूम के बरसी बरखा रानी,थिरक उठे हैं पांव,
मेरे थिरक उठे हैं पांव,
खेतों में है हल चल रहे, बूढे पीपल पर हरियाली,
अल्हड बालाओं ने भी, डाली पींगे सावन वाली,
गोरैया के संग-संग मै भी, अपने पर फैलाऊ,
मेरे थिरक उठे हैं पांव,
छानी पर फूलों की बेले,बेलों पर बेले ही बेले,
नवयोवना सरिता पर भी हैं,लहरों के रेले ही रेले,
हमको है ये पर कराती, एक मांझी की नाव,
मेरे थिरक उठे हैं पांव,
भरे हैं सब ताल-तलैया,झूमी है अब धरती मैया,
मेघों ने भी डाला डेरा, छुप गए हैं अब सूरज भैया,
गाय-बैल सब घूम-ग़म कर,बैठे अपनी ठांव,
देखो मेरा सारा गांव,मेरे थिरक उठे हैं पांव।
आपका
शिल्पकार
( चित्र गूगल से साभार)
VERY BEAUTIFUL POEM AND NICE ARTICAL. CONGRATS TO THE WRITER
जोरदार गीत हवे...
saadar...