बसंतागमन
जुझ रही हैं कोहरे से
सुर्यकुमारियाँ
किसी मजदुर की तरह
एक जुन की रोटी के लिए
बोझा ढोता एटलस
पृथ्वी का भार
कांधे पर लादे
चलता है अनवरत
भुख मिटाने के लिए
पर्चे बांटे जा रहे हैं
बाजार मे
भुख मिटाने वाला
सल्युशन बनकर है
तैयार
अब बोझा उतार दो
एटलस
आपका
शिल्पकार
अब बोझा उतार दो एटलस!!
ब्लॉ.ललित शर्मा, शुक्रवार, 22 जनवरी 2010
लेबल:
कविता,
चिट्ठा जगत,
ब्लाग प्रहरी,
ब्लाग वाणी,
ललित शर्मा,
शिल्पकार
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
बढ़िया रचना !!
bahut badhiya!!!
शानदार!! काश, एटलस ऐसा कर पाता!
सुन्दर रचना!
वाह,सुंदर.
बेहद खूबसूरत रचना ।
मत करो ऐसी चकलस,
मत कहो कि
तुम बोझा उतार तो एटलस,
नाराज होकर,
धरती कहर ढा जायेगी,
अगर एटलस ने
आपका कहा मान लिया तो
क़यामत आ जायेगी !!
बहुत जबरदस्त सोच और लाजवाब संप्रेषण.
रामराम.
भावविभोर कर गई।
बाजार मे
भुख मिटाने वाला
सल्युशन बनकर है
तैयार
अब बोझा उतार दो
एटलस
वाह क्या आइडिया है जी!
कोहरे की चादर ओढ़ आया है वसंत ...बर्फ की उजली सतह से देखो !!!!
बहुत सुंदर रचना, वेसे मुझे तो अपनी एटलस साईकिल याद आ गई, जिस पर हम भी बोझा ले कर पिसबाने जाते थे
अब बोझा उतार दो एटलस...
बेहतर...
Raj ji ke jaisa hi kuchh maine samjha tha sheershak padh ke.
aapki soch ko salaam
Jai Hind...
Raj ji ke jaisa hi kuchh maine samjha tha sheershak padh ke.
aapki soch ko salaam
Jai Hind...