आज बसंत पंचमी है और प्रकृति का सबसे सुहाना मौसम प्रारंभ हो रहा है। कवियों इस मौसम का गुणगान करते हुए ना जाने कितने ग्रथ रच दिए। इस मौसम का आनंद ही कुछ और है। बस कुछ दिन बाद पलास के फ़ुल खिलेंगे एक हरितिमा मिश्रित लालिमा से धरती का श्रृंगार होगा। महुआ के फ़ुल झरेंगे जिसकी खुशबु से वातावरण मतवाला हो जाएगा। प्रकृति मदमस्त हो जाएगी। इस समय मैने यह कविता 14जनवरी 1987 को लिखी थी। आपका आशीर्वाद चाहुंगा।
आज यादों के सुमन खिले हैं
फ़िर खुला सपनों का आगार
क्युं मेरा मन विकल हुआ है
आएगा ॠतुराज बसंत मेरे द्वार
आज बसंत का जन्म दिवस है
क्युं टीसें उठ रही है इस दिल में
तुम्हारी खोयी हुई यादो की पुन:
ज्युं कली खिली हो इस दिल मे
बसंत आया फ़िर क्युं वीरान है
इन जागी उम्मीदों का चमन
क्युं राज छिपा के इस दिल मे
आनंदित नही है कोई सुमन
लिए बैठा हुँ इक आस चमन मे
चुपके से कहीं कोई फ़िर आएगा
भर कर झोली मे बासंती रंग
अपने दोनो हाथों से खुब लुटायेगा
मेरा स्वप्न कभी साकार न हुआ
ना ही कहीं बसंत फ़िर आएगा
वही कांटों की सेज और तनहाई
वह ललित बसंत फ़िर नही आएगा
आपका
शिल्पकार
हैं महराज!
बसंत में ऐसे हुआ जाता है क्या?
जमीन पर बिछे पत्तों के उपर ही फूल होते हैं। चुनिए , उत्सव मनाइए। पत्ते कुरेदने के लिए तो और ऋतुएँ पड़ी ही हुई हैं।
बसंत पंचमी की शुभकामनाएँ.
"बसंत आया फ़िर क्युं वीरान है
इन जागी उम्मीदों का चमन
क्युं राज छिपा के इस दिल मे
आनंदित नही है कोई सुमन"
वसन्त! और सुमन आनन्दित नहीं?
मुझे तो लगता है कवि आनन्दित नहीं है। होता है ऐसा कई बार।
बसंत...............बसंत
बसंत पंचमी की शुभकामनाएँ.
बसंती पंचमी की घणी रामराम.
रामराम
मैं भी "पंचमी" के आने की आश लगाए बैठा हूँ ललित जी, आपको वसंत पंचमी की शुभकामनाये !
वसंर पंचमी की शुभकामनाएं।
आप को बसंत पंचमी की शुभकामनाएँ.चलिये हम आ रहे है भारत कई सालो के बाद बसंत देखने अपने देश का
बसंत पंचमी की शुभकामनाएँ
बसंत आया फ़िर क्युं वीरान है
इन जागी उम्मीदों का चमन
क्युं राज छिपा के इस दिल मे
आनंदित नही है कोई सुमन
दशक-भर पूर्व लिखी यह कविता यदि आज आपके सोच-विचार भावनाओं के निकट है तो यह प्रमाण है आपकी संवेदनशीलता का.
लेकिन क्या शिल्प की जानिब दृष्टि गयी है आपकी, क्या मज़ा आता , या यूँ कहें कि दुगुना हो जाता,यदि आप इसे फिर-फिर लिखते.
भाई अफ़सोस कि मेरी नज़र देर से पहुंची!!
बहुत ही प्रेमिल कविता, सचमुच!
मेरी गुस्ताखियों को अरपा में विसर्जित कर दीजिएगा.
शहरोज भाई-आपका स्नेह मेरे जीवन की अक्षय पुंजी है। यह कविता आज से 22वर्ष पुर्व लिखी गई थी उस वक्त मुझे शिल्प क्या होता है?यही नही पता था। मैने पुरानी कवि्ताओं के साथ छेड़ छाड़ इसलिए नही कि क्युंकि ये उस समय की मेरी जो भी लेखन की अपरिपक्वता को उजागर करती हैं। जिससे भविष्य मे और भी सुधार की आशा रहेगी। यही मेरी प्रेरणा है। मैने भावो को प्रकट करने के लिए शब्दों का माध्यम चुना बस और कुछ नही। आप स्नेह और आशीष बनाए रखें।
धन्यवाद्।