आज एक कविता फिर पुरानी डायरी से लिख रहा हूँ. इस पर डॉ. के.डी.सारस्वत ने अपनी कलम चलाई थी. आज से ६ वर्ष पूर्व उनकी हत्या स्नातक महाविद्यालय के प्राचार्य पद पर रहते हुए कर दी गई थी. अब उनकी यादें ही शेष है.
श्मशान
सिर्फ श्मशान
जहाँ एक भयावह चुप्पी
और नीरवता रहती है
घनघोर अँधेरे से
अपनी बात कहती है
श्मशान की चार दीवारी से
लगा बहता है एक नाला
नाला नहीं
दुखो और आंसुओं का सैलाब
देखी है उसने चिताए खुशियों की
जहाँ दफन हैं गुलाब
एक बेशरम का झुण्ड
उसके साथ कुछ नरमुंड
जाता रहे थे सहानुभूति
साथ लाये थे
मुआवजे का नमक
रिसते जख्मो पर मलने के लिए
तड़फते सिसकते लोगों,
परिजनों के बीच
बेशर्मी से खड़े हैं.
वोटों की राजनीति ने
इन्हें आदमी से
हैवान बना डाला
मैं सोच रहा था.
इनको कभी श्मशान बैराग
क्यों नहीं व्यापता?
बस एक प्रश्न करता हूँ
कितनी हुयी विधवाएं?
कितने हुए अनाथ?
क्यों आये शमशान में?
एक प्रश्न चिन्ह है साथ.
(बेशरम= हमारे यहाँ उगने वाली एक तरह की झाड़ी है. जो काट कर फेंक देने से कहीं पर भी अपनी जड़ें जमा लेती है.)
आपका
शिल्पकार,
मुआवजे का नमक!!
ब्लॉ.ललित शर्मा, बुधवार, 13 जनवरी 2010
लेबल:
कविता,
चिटठा जगत,
ब्लॉग प्रहरी,
ब्लॉग वाणी,
ललित शर्मा,
शिल्पकार
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
बहुत गहरी और प्रभावपूर्ण रचना...
बहुत शानदार रचना |
"साथ लाये थे
मुआवजे का नमक
रिसते जख्मो पर मलने के लिए
तड़फते सिसकते लोगों,
परिजनों के बीच
बेशर्मी से खड़े हैं.
वोटों की राजनीति ने
इन्हें आदमी से
हैवान बना डाला"
वाह!
कविता अपने भाव का पूर्ण दर्शन करा रही है.
लोहड़ी की बधाई!
bahut gaharee bhaavapoorN racanaa ke liye dhanyavaad lohaDee kee shubhakaamanaayeM
वोटों की राजनीति ने
इन्हें आदमी से
हैवान बना डाला
मैं सोच रहा था.
इनको कभी श्मशान बैराग
क्यों नहीं व्यापता?
बस एक प्रश्न करता हूँ
कितनी हुयी विधवाएं?
कितने हुए अनाथ?
क्यों आये शमशान में?
एक प्रश्न चिन्ह है साथ.
Bahut khoob !
बहुत गहन अभिव्यक्ति.
रामराम.
bahut gahan abhivyakti.
साथ लाये थे
मुआवजे का नमक
रिसते जख्मो पर मलने के लिए
बेबाकी तथा साफगोई का बयान ...
बहुत अच्छी रचना,
गंभीर सोच!
बहुत ही सार्थक लेखन!
लोहिड़ी पर्व और मकर संक्रांति की हार्दिक शुभकामनाएँ!
शमशान पर भी गुलाब
लाल टपक रहे हैं।
सुन्दर भावाभिव्यक्ति भाई
.
सकरायेत तिहार के गाडा गाडा बधई.
बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति
वोट में ही तो खोट है
जहाँ देखो वहाँ लूट खसोट है
किसको पड़ी है किसी के जान की
बस फिक्र है तो अपनी "शान" की
ले फेर सकरायेत के बधाई
अउ ए साल फेर जम्मो झन कब
संकराबो (संघरबो)?
बहुत शानदार कविता. धन्यवाद.