तेरा आना
निष्प्राण में
नए जीवन का
संचरण था
बुझते दीपक में
नई उर्जा का
अवतरण था
जंग लगी
स्वझरणी जागी
कहने लगी
मुखर होकर
प्रखर होकर
अपने पन का
पारदर्शी अहसास
परिष्कृत कर गया
जनमी गर्भ से
कालजयी कृतियाँ
तुम्हारी
प्रेरणा की अदृश्य तरंगों ने
झखझोर दी चेतना
सामीप्य ने भरे
आकाश में वासंती रंग
रात रानी महकी
नागीन मस्ती में झूमी
सहसा
छलकते नैनों
टुटा भरम
देकर
लेने वाले
तुम निकले
आपका
शिल्पकार
अतिसुंदर कोमल भाव.
बहुत सुन्दर...ललित भाई!!
चोट गहरी खाई हुई है कहीं गुरु...
ये भ्रम यूहीं नहीं टूटा करते...
जय हिंद...
अद्भुत!
बहुत गहरी भावाभिव्यक्ति . बधाई !!
बहुत गहरी भावाभिव्यक्ति . बधाई !!
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति है ललित जी!
बहुत सुन्दर...
बहुत खूबसूरत.
रामराम.
साहब !
यह तो जो महसूस वही जाने .. सुन्दर ,,,
bahut hi gahan.
वाह ! आपकी कविताओं में अब नुखार अ रहा है ललित जी !
अति सुंदर
धन्यवाद