उन दिनों पंजाब में आतंकवाद चरम सीमा पर था. रोज हत्याओं का दौर चल रहा था. रेडियों बम दिल्ली सहित कई जगह फुट रहे थे. मैं 10 वीं में पढ़ रहा था. एक दिन समाचार सुना की एक हवाई जहाज में बम रख कर आतंकवादियों ने उड़ा दिया. उसमे से एक भी यात्री नहीं बचा. सभी मारे गए. मेरे मन से एक कविता फुट पड़ी.यह बात 1983-84 की हो सकती है. जिसे मैं अपनी डायरी में लिख दिया मेरी पुरानी डायरी कहीं खो गई. कवितायेँ भी उसके साथ चली गई. लेकिन कल एक फाईल में रखे कुछ पन्ने मिल गए. उसमे से ये एक कविता आपके सामने ज्यों की त्यों प्रस्तुत कर रहा हूँ. आशीर्वाद चाहूँगा.
बस!
अब और नहीं!
मौत का तांडव
देखने वाले
एक जिन्दा आदमी
की आवाज
निर्दोष लोगों को
निगल गया
मौत का वह बेरहम साज
जिसने भी देखा
उसके नैन हुयें रुन्वसे
छोटी सी गुडिया छीन गई
उस मासूम हाथ से
मौन निगल गई उसे
मध्य आकाश से
जिधर देखो उधर
लाशों के चीथड़े हैं
कई प्रियजन
एक दुसरे से बिछड़े हैं
अब हम अपने दिल का दर्द
किस्से कहें
साँप तो डस गया
बस! लकीर पीटते रहें
आपका
शिल्पकार
पंजाब के हालातों का वर्णन खूब किया है।
बहुत अच्छी कविता शुभकामनायें
बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति है ललित जी!
"साँप तो डस गया
बस! लकीर पीटते रहें"
किन्तु साँप को डँस देने का अवसर देने तथा निकल जाने देने में गलती तो हमारी ही है ना!
उस समय का बखूबी वर्णन ...
सुंदर प्रतिक्रिया!
कविता बहुत अच्छी लगी...
सच में सिर्फ लकीर ही पीटी जा रही है ...
आतंकवादी-व्याल और कराल फन फैलाता जा रहा है ..
यह कविता आज और सच बन गयी है .. आभार ,,,
बहुत गहरा आघात करती है ! साँप तो डस गया
बस! लकीर पीटते रहें हैं !! बहुत भावक !!!
ललित भाई सांप को डंसने से पहले ही दवोच लो...
बहुत सुंदर शव्दो मै आप ने यह दर्द दर्शाया है जिन पर बीती है वो ही इस दर्द को जाने
वाह ललित जी बहुत गजब की रचना है उस वक्त का सारा दर्द बयान करती हुई
अजय कुमार झा
भावप्रणव नवगीत के लिए बधाई!
यानी बचपन से ही कविता…………… बहुत बढिया ललित बाबू।
बेहतर...
ललित भाई,
जो ज़ख्म भर चुके हैं, उन्हें भूल जाना ही अच्छा है...
जय हिंद...
क्यां करें मन में डिफरेंट डिफरेंट भाव उत्पन्न होते हैं. जिसे "कवि मन" प्रकट करने से चूकता नहीं.
बहुत ही सुन्दर रचना. पर ......
सांप डस गया लकीरें पीटते रहे
अरे पीटते रहे क्या?
पीट रहे हैं और पीटते रहेंगे