मरीचिका
मृगतृष्णा
अतृप्त चक्षु
अतृप्त आत्मा
मन चातक
व्याकुल अनवरत
जीवन दुर्भर
कांक्रीट की दीवारें
टूटती नहीं
बाधाएं लाँघ नहीं पाया
अग्नि ज्वालायें
धधकती सीने में
पुन: उर्जा
निर्मित करने
पुन: कोशिश करूँ
लाँघ पाऊँ बाधाओं को
तृप्ति तभी संभव है.
आपका
शिल्पकार
लाँघ पाऊँ बाधाओं को!!
ब्लॉ.ललित शर्मा, गुरुवार, 28 जनवरी 2010
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बहुत उम्दा!
आस्था और आशावादिता से भरपूर स्वर इस कविता में मुखरित हुए हैं।
आशावादी साहस को प्रोत्साहन देने वाले भाव युक्त आपकी कविता बहुत अच्छी है !!
उत्कृष्ट शब्द चयन प्रशंसनीय है ......बधाई स्वीकारे !!
http://kavyamanjusha.blogspot.com/
"लाँघ पाऊँ बाधाओं को ..."
प्रत्येक व्यक्ति का यही लक्ष्य होना चाहिये।
सुन्दर अभिव्यक्ति!
आश और आस्था की सुन्दर अभिव्यक्ति शुभकामनायें
पुन: उर्जा
निर्मित करने
पुन: कोशिश करूँ
लाँघ पाऊँ बाधाओं को
तृप्ति तभी संभव है.
गुरजी, बहुत खूब !
मैं क्या कहूँ अब ............... आपने निःशब्द कर दिया है.... बहुत ही सुंदर कविता....
पुन: कोशिश करूँ
लाँघ पाऊँ बाधाओं को
तृप्ति तभी संभव है.
साहस से भरी है आप की यह रचना, बहुत सुंदर
बेहतरीन रचना.
रामराम.
waah........behtreen rachna.
पुन: कोशिश करूँ
लाँघ पाऊँ बाधाओं को
तृप्ति तभी संभव है.
.... प्रभावशाली अभिव्यक्ति !!!!
सुन्दर अभिव्यक्ति!
पुनः कोशिश कीजिए...
तृप्ति के लिए...