डी. आई. जी. का डंडा महिला पर चलने से एवं कलेक्टर द्वारा मातहत कर्मचारी को थप्पड़ मारने से एक कवि का मन आहत हुआ और आक्रोश से भर उठा. कलम करने लगी व्यवस्था पर चोट. गिरीश भाई ने आज इस विषय पर एक कविता कही है. तन बुखार से जूझ रहा है और मन दुष्ट व्यवस्था से, एक कवि दोनों मोर्चों पर संघर्ष कर रहा है. मै गिरीश भाई के जज्बे को सलाम करता हूँ और उनकी रचना प्रस्तुत करता हूँ. पूरी कविता पढ़ने के लिए यहाँ पर आयें.
लोकतंत्र शर्मिंदा है. यहाँ अफसरी ज़िंदा है.
लोकतंत्र शर्मिंदा है. यहाँ अफसरी ज़िंदा है.
वर्दी में शैतान छिपे है, कुर्सी पर मक्कार बहुत.जनता को ये रौंद रहे है, देखो बरमबार बहुत.
कहीं पे डंडा चलता है तो कही पे थप्पड़ भारी.
लोकतंत्र की छाती पर अब ये कुर्सी हत्यारी.
नीच हो गयी नीक व्यवस्था, घायल श्वेत परिंदा है.
लोकतंत्र शर्मिंदा है. यहाँ अफसरी ज़िंदा है.
खुले आम अब लोग पिट रहे, कैसा है जनतंत्र
जनता ही मारी जाती है, रोज़ नया षड्यंत्र .
अफसर जालिम बन बैठे है, अंगरेजी संतानें.
इनको हम ही पाल रहे , कोई माने या ना माने.
जनता का हर इन्कलाब भी इनको लगता निंदा है.
लोकतंत्र शर्मिंदा है. यहाँ अफसरी ज़िंदा है.
उठो-उठो ओ सारे मुर्दों, अब थोड़ा चिल्लाओ तुम.
जहाँ पराजित लोकतंत्र हो, बिलकुल शोर मचाओ तुम.
देश में अफसर नही, देश की जनता का ही शासन है.
हाय अभी तक यहाँ हंस रहा, दुर्योधन-दुशासन है.
लोकतंत्र का हर हत्यारा, अफसर नहीं दरिंदा है.
लोकतंत्र शर्मिंदा है. यहाँ अफसरी ज़िंदा है...
आपका
शिल्पकार
kya baat hai sir.. umda rachna...
maine kal hui bloggers meeting kee charcha apne blog par kee hai... kripya aa kar kuchh sudhaar karein...
http://ab8oct.blogspot.com/
सुन्दर क्रान्ति का घोष कविता के माध्यम से ललित जी !
"उठो-उठो ओ सारे मुर्दों, अब थोड़ा चिल्लाओ तुम.
जहाँ पराजित लोकतंत्र हो, बिलकुल शोर मचाओ तुम."
सामयिक एवं सही आह्वान!
jabardast!
क्या मुर्दे भी कभी बोलते हैं?
इसको पढ़ने के बाद लगा क कुछ चिनगारियां निकलीं और उत्तेजित करके चली गईं।
yaha afsari jinda hai
isi baat kii ninda hai
samyik va shasakt kavita
बहुत लाजवाब और सामयिक.
रामराम.
उठो-उठो ओ सारे मुर्दों, अब थोड़ा चिल्लाओ तुम.
जहाँ पराजित लोकतंत्र हो, बिलकुल शोर मचाओ तुम.
बहुत सुंदर ललकार , लेकिन अब वो दिन दुर नही जब यह मुर्दा फ़िर से जीवन के लिये लडेगे
धन्यवाद
मुर्दों को जगाने के लिए कवि ते उदघोष करते ही रहेंगे!
नया वर्ष स्वागत करता है , पहन नया परिधान ।
सारे जग से न्यारा अपना , है गणतंत्र महान ॥
गणतन्त्र-दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ!
जूते की तरह लोकतंत्र लटकाए
भागे जा रहे हैं सभी सीना फुलाए!
girish bhaiya ki पंक्तियाँ पढ़ते हुए सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की यह पंक्ति विडंबना को और तिक्त करती रही!