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एक जून की रोटी को तरसा!!

दुनिया बनाई देखो उसने कितना वह भी मजबूर था
एक जून की रोटी को तरसा मेरे देश का मजदूर था


चंहु ओर हरियाली की  देखो एक चादर सी फैली है 
यही देखने खातिर उसने भूख धूप भी झेली है 
अपने लहू से सींचा धरा को वह भी बड़ा मगरूर था
एक जून की रोटी को तरसा मेरे देश का मजदूर था


महल किले गढ़े हैं उसने, बहुत ही बात निराली है
पसीने का मोल मिला ना पर खाई उसने गाली है 
सर छुपाने को छत नहीं है ये कैसा दस्तूर था
एक जून की रोटी को तरसा मेरे देश का मजदूर था


पैदा किया अनाज उसने, पूरी जवानी गंवाई थी
मरकर कफ़न नसीब न हुआ ये कैसी कमाई थी
अपना सब कुछ दे डाला था  दानी बड़ा जरूर था 
एक जून की रोटी को तरसा मेरे देश का मजदूर था

आपका
शिल्पकार

Comments :

13 टिप्पणियाँ to “एक जून की रोटी को तरसा!!”
Kusum Thakur ने कहा…
on 

किसान की स्थिति का बहुत अच्छा वर्णन !!

Kusum Thakur ने कहा…
on 
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
Udan Tashtari ने कहा…
on 

एक तबके की मजबूरियों का चित्रण...अच्छा है.

विनोद कुमार पांडेय ने कहा…
on 

सबको अन्न देने वाला किसान आज सही में एकदम मजबूर है और कहीं से कोई आवाज़ उसने पक्ष में उठती नही दिखाई देती है..मँहगाई ज़रूर बढ़ा रही है पर उनसे अनाज उसी दामों पर लिया जा रहा है...बहुत सही चित्रण...धन्यवाद ललित जी सोचनीय विषय हैज़ो आपने कविता के माध्यम से उठाई है..बहुत बहुत धन्यवाद..

पी.सी.गोदियाल "परचेत" ने कहा…
on 

पैदा किया अनाज उसने, पूरी जवानी गंवाई थी
मरकर कफ़न नसीब न हुआ ये कैसी कमाई थी
अपना सब कुछ दे डाला था दानी बड़ा जरूर था
एक जून की रोटी को तरसा मेरे देश का मजदूर था

बहुत ही सुन्दर शिल्पकार साहब ! सुन्दर चित्रण
अब थोड़ा सा मजाक कर लू ; जब आपकी रचना की हेडिंग अपने ब्लॉग के 'रीडिंग लिस्ट में पढी तो दिमाग में एक खुरापात सूझी की अभी जाकर ललित जी से कहता हूँ कि क्या हुआ अगर एक जून को आप रोटी के लिए तरस गए तो ? दो जून को मिल जायेगी, ऐसा थोड़े ही है कि भाभी जी इतने दिनों तक भूखा रखेंगी आपको :) खैर, उम्मीद है मजाक भाडा नहीं लगेगा आपको, बस ये भी दिल को हल्का करने के बहाने होते है !

पी.सी.गोदियाल "परचेत" ने कहा…
on 

ये लो 'भद्दे' शब्द की जगह 'भाडा' शब्द अंकित हो गया !

Unknown ने कहा…
on 

कहते हैं कि
विश्व का प्रसिद्ध स्मारक
ताजमहल
शाहजहाँ ने बनवाया था
पर क्या उसे बनाने के लिये
उसने एक ईंट भी उठाया था?
उल्टे
उसे बनाने वाले मजदूरों का
हाथ भी उसने कटवाया था
निष्कर्ष
मेहनत का फल मीठा नहीं
कड़ुवा होता है!

Anil Pusadkar ने कहा…
on 

जो मजबूर है वही तो मज़दूर है।जो जनता दुःखी है वही तो भूखी है और जनता को भूःखी रखने वाला ही इस देश मे सुखी है।

संगीता पुरी ने कहा…
on 

एक जून की रोटी को तरसा मेरे देश का मजदूर था
भरपूर संवेदना भरी है इस रचना में !!

ताऊ रामपुरिया ने कहा…
on 

अत्यंत मार्मिक अभिव्यक्ति.

रामराम.

मनोज कुमार ने कहा…
on 

पैदा किया अनाज उसने, पूरी जवानी गंवाई थी
मरकर कफ़न नसीब न हुआ ये कैसी कमाई थी
इस कविता की कोई बात अंदर ऐसी चुभ गई है कि उसकी टीस अभी तक महसूस कर रहा हूं।

राज भाटिय़ा ने कहा…
on 

बहुत दर्द है आप की इस कविता मै, बहुत अच्छी लगी
धन्यवाद

सूर्यकान्त गुप्ता ने कहा…
on 

भारतीय किसान jiska har koi rini hota hai
wah bechara is desh me "karj" ke saath paida
hota hai karj me jeeta hai aur karj me hi mar jaata hai
yah hai desh ki vidambana.... bahut hi marmik rachna

 

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