अखबारी कविता-रद्दी पेप्योर से उठाए गए शीर्षक-आशीर्वाद चाहुंगा
आक्रामक तेवर
नही चलाने देगें टैक्सी
सरकार का कोई
लेना देना नही
सबसे बड़ी गिरावट
इस साल की
एक और
टैक्सी चालक पर हमला
धुमिल होती छवि
एक्सरसाईज से
पाएं चेहरे मे रौनक
ये काले दाग
हटेंगे कैसे?
इंसानो जैसे दुसरों पर
नहीं हंसते बंदर
आपका
शिल्पकार
इंसानो जैसे दुसरों पर नहीं हंसते बंदर!!
ब्लॉ.ललित शर्मा, शनिवार, 23 जनवरी 2010
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अब तो बड़े बंदर भी अपने कुनबे को इस तरह समझाते हैं...
बंदर बनो बंदर...बंदर हो तुम कोई इनसान नहीं हो जो एक दूसरे से लड़ते फिरो...
जय हिंद...
वह दिन दूर नहीं जब बन्दर अपने बच्चों से बोलेंगे
" इन इंसानों से दूर रहो ...ये क्या जाने बस्तियां उजड़ने का दर्द" ...!!
दिन दूर क्या, आया ही समझो.
रामराम.
इन्सान के पूर्वज हैं बन्दर। इन्सान बनने के बाद ही उन्होंने दूसरों पर हँसना सीखा याने कि बन्दर बने रहते तक उसका स्थान उच्च होता है पर इन्सान बन जाने पर गिर जाता है।
बात तो सही है
सही कहा ललित जी , ये तो बंदरो से भी गए गुजरे है !
बहुत करारा प्रहार है जी!
अच्छा जवाब दिया है!
सही कहा आपने .. माहौल की अब्सर्दिती को उकेरा है आपने ..
'रद्दी पेप्योर से उठाए गए शीर्षक ' में कला - साधना अच्छी की है आपने .. आभार ,,,
सच कहा आपने..... इंसानो जैसे दुसरों पर
नहीं हंसते बंदर.....
आप से सहमत है, हमे प्रेम इन बंदरो ओर जानवारो से सीखना चाहिये
दिलचस्प!!
बड़ी नजदीक की दूरदर्शिता...है, महाराज!!