मौसम ही कुछ
ऐसा हुआ है
वृक्ष पर एक भी पत्ता नहीं
यह मौसम पहले भी आता था
इतना भयानक रूप
पहले कभी देखा नहीं
कोयल की कूक
बुलबुल के नगमे
खो गये हैं कहीं
तेज पवन के झोंकों से
सिर्फ पत्तों के
खड़कने की आवाज आती है
पत्ते कहते हैं
वृक्ष हमारा साथ छोड़ देता है
उस पर फिर यौवन आएगा
हरियाली का उन्माद छाएगा
वह स्वयं ही जुदा हुआ है
हमसे फिर कहता है
पत्ते साथ छोड़ देते हैं
लेकिन हम साथ रहे सदा तुम्हारे
पहले भी हमने
आँधियों का तुफानो का
सामना साथ किया था
लेकिन अबकि बार
आंधियों में हमारे पांव जम न सके
हम शीशे की तरह
टूट कर बिखर गए
यह तो प्रकृति का खेल है
कुछ देर यौवन का उन्माद देखना है
फिर टूट कर बिखर जाना है
समा जाना है फिर
इसी माटी में
गुम हो जाना है
बिना किसी अस्तित्व के
बेनाम होकर
आपका
शिल्पकार
संसार की हर शह का इतना ही फ़साना है...
इक धुंध से आना है, इक धुंध में जाना है...
वैसे ललित भाई, आपके साथ 17 साल पहले जो हादसा पेश आया था, उसे लेकर मेरी आपसे पूरी सहानुभूति है...ठीक वैसे ही जैसे कि आपको मुझसे है...
जय हिंद....
@ खुशदीप के लिए-
तुम्हारे आने से ही मेरे आंगन मे खुशियों के फ़ुल झरते हैं,
भीषण झंझावातों मे भी नित खुशियो के दीप जलते हैं।
"कुछ देर यौवन का उन्माद देखना है
फिर टूट कर बिखर जाना है"
चार दिनों की चाँदनी फिर अँधियारी रात
यह तो प्रकृति का खेल है
कुछ देर यौवन का उन्माद देखना है
फिर टूट कर बिखर जाना है
समा जाना है फिर
इसी माटी में
गुम हो जाना है
बिना किसी अस्तित्व के
बेनाम होकर
उम्दा भाव, ललित जी !
आज मुच्छड़ उदास क्यों है ?
यह तो प्रकृति का खेल है
कुछ देर यौवन का उन्माद देखना है
फिर टूट कर बिखर जाना है
समा जाना है फिर
इसी माटी में
गुम हो जाना है
बिना किसी अस्तित्व के
बेनाम होकर
-गजब-अद्भुत!!! क्या बात कह गये..हम सोच मग्न हुए.
कुछ देर यौवन का उन्माद देखना है
फिर टूट कर बिखर जाना है
समा जाना है फिर
इसी माटी में
गुम हो जाना है
शायद यही शाश्वत है
कुछ देर यौवन का उन्माद देखना है
फिर टूट कर बिखर जाना है
समा जाना है फिर
इसी माटी में
गुम हो जाना है
बिना किसी अस्तित्व के
बेनाम होकर
यही संसार का सत्य है बहुत अच्छी रचना शुभकामनायें
बहुत खूब! आज सुबह सुबह इतनी तगड़ी दार्शनिक कविता कह दी। दिन भर का क्या होगा?
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"समा जाना है फिर
इसी माटी में
गुम हो जाना है
बिना किसी अस्तित्व के
बेनाम होकर"
ललित जी,
यह क्या लिख दिये आप...'नाम' के लिये तमाम प्रपंच रचते हैं हम लोग... और आप गुमाये दे रहें हैं... सब को... इसी माटी में... अस्तित्वहीन और बेनाम...
ये साला 'सत्य' हमेशा ही इतना नंगा और भयावह क्यों होता है ?...
बहुत सशक्त रचना.
आभार.
वाह वाह शर्मा जी ...मजा आ गया पढ के ..बहुत खूब लिखा आपने ..
अजय कुमार झा
जीवन की सच्चाईयों से रुबरू कराती सुन्दर रचना
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