कहाँ ढूंढें वो आँखों का पानी
कहाँ ढूंढे वो खोई कहानी
कहाँ ढूंढें वो चाल मस्तानी
कहाँ ढूंढें वो लहरों की रवानी
दाल रोटी की चल रही है जंग
मर्यादाएं नित हो रही है भंग
रहने को हो रही है जगह तंग
आश्वासनों के बज रहे मृदंग
हकीम साहब का दवाखाना बंद
सांसों की गति चल रही मंद
पेट पर लगा दिये कई पैबंद
कहाँ ढूंढें अब हम मकरंद
आपका
शिल्पकार
दाल रोटी की चल रही है जंग
मर्यादाएं नित हो रही है भंग
रहने को हो रही है जगह तंग
आश्वासनों के बज रहे मृदंग
कहाँ ढूंढे वो मौज पुरानी
कहाँ ढूंढें वो मस्त जवानी
बहुत सुन्दर ललित साहब !
@ गोदियाल साब कल हम यहां पर भी गये, बढिया चीज मिली जाकर,आपने खुब चित्रकारी की है।
"तन किलै रडकाई तिन सी, पीठी मकौ भारू,
मिन नी घड्काई आज, गोरख्याणी कू दारू",
प्याले का पुरा खर्चा बचा लिया।
बहुत ही सटीक और अच्छी रचना ।
पेट पर लगा दिये कई पैबंद -वाह!! क्या शिल्पकारी है शब्दों की. बधाई.
BAHUT ACHCHHI HAI.
आश्वासनों के बज रहे मृदंग ।
बिलकुल सही ।