आज "एक बार फिर" से आदिवासी कवियत्री निर्मला पुत्तुल जी की एक कविता पेश कर रहा हूँ, जो इन्होने "अंतर राष्ट्रीय महिला दिवस का आमंत्रण" पाकर लिखी थी.
"एक बार फिर"
हम इकट्ठे होंगे
विशाल सभागार में
किराये की भीड़ के बीच
एक बार फिर
ऊँची नाक वाली
अधकटे ब्लोउज पहनी महिलाएं
करेंगी हमारे जुलुस का नेतृत्त्व
और प्रतिनिधित्व के नाम पर
मंचासीन होंगी सामने
एक बार फिर
किसी विशाल बैनर के तले
मंच से खड़ी माइक पर वे चीखेंगी
व्यवस्था के विरुद्ध
और हमारी तालियाँ बटोरते
हाथ उठा कर देंगी साथ होने का भरम
एक बार फिर
शब्दों के उड़न खटोले पर बिठा
वे ले जाएँगी हमे संसद के गलियारों में
जहाँ पुरुषों के अहम से टकरायेंगे हमारे मुद्दे
और चकनाचूर हो जायेंगे
उसमे निहित हमारे सपने
एक बार फिर
हमारी सभा को सम्बोधित करेंगे
माननीय मुख्यमंत्री
और हम गौरवान्वित होंगे हम पर
अपनी सभा में उनकी उपस्थिति से
एक बार फिर
बहस की तेज आंच पर पकेंगे नपुंसक विचार
और लिए जायेंगे दहेज़-हत्या, बलात्कार, यौन उत्पीडन
वेश्या वृत्ति के विरुद्ध मोर्चाबंदी कर
लड़ने के कई-कई संकल्प
एक बार फिर
अपनी ताकत का सामूहिक प्रदर्शन करते
हम गुजरेंगे शहर की गालियों से
पुरुष सत्ता के खिलाफ
हवा में मुट्ठी बांधे हाथ लहराते
और हमारे उत्तेजक नारों की ऊष्मा से
गरम हो जायेगी शहर की हवा
एक बार फिर
सड़क के किनारे खडे मनचले सकेंगे अपनी ऑंखें
और रोमांचित होकर बतियाएंगे आपस में कि
यार शहर में बसंत उतर आया है
एक बार फिर
जहाँ शहर के व्यस्ततम चौराहे पर
इकट्ठे होकर हम लगायेंगे उत्तेजक नारे
वहीं दीवारों पर चिपके पोस्टरों में
ब्रा पेंटी वाली सिने तारिकाएँ
बेशर्मी से नायक की बांहों में झूलती
दिखाएंगी हमें ठेंगा
धीर-धीरे ठंडी पड़ जायेगी भीतर की आग
और एक बार फिर
छितरा जायेंगे हम चौराहे से
अपने-अपने पति और बच्चों के
दफ्तर व स्कुल से लौट आने की चिंता में
आपका
शिल्पकार
(कथादेश से साभार)
कुछ न होने से तो यह शायद बेहतर होगा।
घुघूती बासूती
सिर्फ दो किरदार नाटक में हमारे बच गये
भूख से बदहाल हैं ये, वो नशे में चूर हैं।
इतना यथार्थ - सरल एकदम टू द प्वाइंट!
अभिधा की शक्ति दर्शनीय है।
आभार इसे पढ़वाने के लिए।