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इंडी ब्लागर

 

माटी की ही क्यों ना हो, आख़िर रोटी ही थी

ईंट के भट्ठे पर
वह चितकबरे
पेबंद में लिपटी
ढो रही थी
इंटों का बोझा
खा रही थी
मिटटी से सनी रोटियाँ
कंकरों के साग के साथ
जब से ब्याही 
चिमनी के धुंए से
दुनिया सिमट गई उसकी
धूल से सनी वो
एक्टरनी सी लगती
बेलदार की घुरती निगाहें
चीर जाती चीर को
वह मजदूरों की
दर्द भरी कहानी का
सच्चा पात्र निभा रही हो जैसे
हकीकत कोसों दूर
फंस चुकी थी
माया के जाल में
खनकते सिक्के की चाल में
रोटी की खातिर
चाहे वो माटी की ही क्यों ना हो
आख़िर रोटी ही थी

आपका
शिल्पकार 

(फोटो गूगल से साभार)

Comments :

3 टिप्पणियाँ to “माटी की ही क्यों ना हो, आख़िर रोटी ही थी”
Anil Pusadkar ने कहा…
on 

ईंट भट्टों मे ही घुल-घुलकर दम तोड़ती ज़िंदगी मैने भी देखी है उसका दर्द भी देखा है मगर कभी लिखने की हिम्मत नही हुई।सही चित्र खींचा है आपने शब्दों से।

मनोज कुमार ने कहा…
on 

प्रतीकों का सहज एवं सफल प्रयोग किया गया है।

kavita verma ने कहा…
on 

sach hai roti ki khatir....aur jane kya kya????

 

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