पृथ्वी गोल घुमती है
ठीक मेरे जीवन की तरह
पृथ्वी की दो धुरियाँ हैं
उत्तर और दक्षिण
मेरी भी दो धुरियाँ हैं
माँ और पत्नी
मै इनके बीच में ही
घूमता रहता हूँ
माँ कहती है,
आँगन में आकर बैठ
खुली हवा में
पत्नी कहती है
अन्दर बैठो
बाहर धुल मच्छर हैं
माँ कहती है
तू कमाने बाहर मत जा
मेरी आँखों के सामने रह
थोड़े में ही गुजारा कर लेंगे
पत्नी कहती है
घर पर मत रहो
बाहर जाओ
घर में रह के
सठियाते जा रहे हो
बच्चों के लिए कुछ
कमा कर जमा करना है
माँ कहती है धीरे चले कर
चोट लग जायेगी
पत्नी कहती है
जल्दी चलो
अभी मंजिल दूर है
धीरे चलोगे तो
कब पहुंचोगे वहां पर
माँ कहती है
बुजुर्गों में बैठे कर
कुछ ज्ञान मिलेगा
पत्नी कहती है
बूढों में बैठोगे तो
तुम्हारा दिमाग सड़ जायेगा
इन बातों के बीच
एक तीसरी आ जाती है
बेटी भी कूद कर धम्म से
मेरी पीठ पर चढ़ जाती है
तब कहीं जाकर
मेरा संतुलन बनता है
वह भी कहती है/पापा
क्या मेरा वजन उठा सकते हो
मैं कहता हूँ
हाँ! बेटी क्यों नहीं?
इन दो धुरियों के बीच
फ़ुट बाल बनने के बाद
आज तेरे आने से मेरे जीवन में
कुछ स्थिरता बनी है
इन दो धुरियों के बीच
एक पूल का निर्माण हुआ है
मैं तो तुम तीनो की
आज्ञा की अवज्ञा नहीं कर सकता
क्योकि तुम तीनो हो मेरी
जनक-नियंता और विधायिका
आपका
शिल्पकार
आज तेरे आने से मेरे जीवन में
कुछ स्थिरता बनी है
इन दो धुरियों के बीच
एक पूल का निर्माण हुआ है
क्या बात है!! नए नज़रिये का पुल और जीवन सन्दर्भ
बहुत खूब
शाश्वत कविता. भावनाओं को बहुत ही सुन्दर ढंग से शव्द दिया है ललित भईया आपने.
हृदय को अंगीकार करती कविता के लिए आभार.
आरंभ