कई वर्षों पहले ये एक प्रेम आमंत्रण लिखा था. आज आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ. आशीर्वाद चाहूँगा.
कैसी कीनी प्रीत बलमवा
कैसी कीनी प्रीत
नैनन की निंदिया, मन को चैना
सगरो ही हर लीना सजनवा
कैसी कीनी प्रीत बलमवा
जूही खिली चम्पा खिली
रात रानी भी अलबेली
कासौं कहूँ मैं मन की बतिया
अगन लगाये देह पवनवा
कैसी कीनी प्रीत बलमवा
मैना बोले सुवा बोले
कोयल मन को भेद ही खोले
बिरहा कटे ना मोरी रतिया
आयो है रे मस्त फगुनवा
कैसी कीनी प्रीत बलमवा
फागुन आयो रंग भी लायो
कामदेव ने काम जगायो
देखत ही बौराई अमिया
गाऊँ रे मैं राग कहरवा
कैसी कीनी प्रीत बलमवा
आनो है तो आ ही जाओ
प्रीत भरी गगरी छलकाओ
भीजेगी जब मोरी अंगिया
और भी होगी प्रीत जवनवा
कैसी कीनी प्रीत बलमवा
आपका
शिल्पकार
मैना बोले सुवा बोले
कोयल मन को भेद ही खोले
बिरहा कटे ना मोरी रतिया
आयो है रे मस्त फगुनवा
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति है इस 'प्रेम आमंत्रण' में. प्रकृति और विरह का अद्भुत समावेश
कैसे कीनी प्रीत
सुंदर एहसास , बधाई
बहुत सुन्दर लगा प्रीत का गीत बधाई
बेहतरीन जी.
रामराम.
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति
कोयल मन को भेद ही खोले
धीरे धीरे आपके दिल में छुपे प्रेम रस की गंगा बह निकली है बडे भाई, सुन्दर सुन्दर कोमल-कोमल भाव रस.
धन्यवाद.
बहुत मनमोहक रचना है।बधाई।
भाई साहब! आप हमारे हमज़बाँ हुए.जानकार अच्छा लगा यानी आप गिरीश जी की कविता से रूबरू हुए.यदि फुर्सत मिले तो साझा-सरोकार और शहरोज़ का रचना संसार भी हो आयें.हमज़बाँ में आपके ब्लॉग का लिंक दे दिया है ताकि आपके पहुँचने में सुविधा हो.
आपके कई ठिकाने देखे, एक से एक निराले और अनूठे.
बहुत ही खूबसूरत रचना है , आभार !!
कैसी कीनी प्रीत बलमवा
कैसी कीनी प्रीत
यह प्रीत भी अजीब है, दर्द भी कूब है, बेचेनी भी खुब है लेकिन इस मै एक अलग मजा भी है, बहुत सुंदर कविता कही आप ने धन्यवाद
waah... bahut sundar preet ka ehsaas...badhai
बिरह को बहुत खूब अंदाज में बयां किया है।
लाजवाब है.
सुन्दर!
"बनन में बागन में बगरो बसंत है" यह "सेनापति" अथवा "पद्माकर" जी कि कविता का एक अंश है जो बसंत ऋतू के आगमन पर लिखी गयी है. आदरणीय ललित भाई भी बसंत ऋतू के आगमन का बेसब्री से इन्तेजार कर रहे हैं. या कहूं बसंत प्रवेश ही कर गया है. बहुत सुन्दर रचना.
bas itna kahungaa...laazwaab geet....waah :)