तृष्णा
मृग तृष्णा
मरीचिका
अतृप्त आत्मा
अतृप्त चक्षु
मन चातक
मयंक की ओर
निहार रहा है
अपलक
दुनिया के प्रपंच
बाधाएं जीवन की
खड़ी हैं निरंतर
सामने
अवरोधक बनकर
जिन्हें पार करना है
एक कुशल धावक की तरह
पहुंचना है विजय रेखा तक
तृप्ति
तभी ही संभव है.
आपका
शिल्पकार
"बाधाएं जीवन की
खड़ी हैं निरंतर
सामने
अवरोधक बनकर
जिन्हें एक पार करना है
एक कुशल धावक की तरह
पहुंचना है विजय रेखा तक
तृप्ति
तभी ही संभव है."
अति सुन्दर!
बहुत ऊँची बात कह गये आप!! जय हो इस रचना के लिए.
बाधाएं जीवन की
खड़ी हैं निरंतर
सामने
अवरोधक बनकर
जिन्हें पार करना है
एक कुशल धावक की तरह
पहुंचना है विजय रेखा तक
तृप्ति
तभी ही संभव है.
KYA BAAT HAI, ज्ञान की बात कही आपने ललित जी !
कुशल धावक ही तो नहीं हैं यहाँ !! sundar rachnaa !!!
एक कुशल धावक की तरह
पहुंचना है विजय रेखा तक
तृप्ति
तभी ही संभव है.
बेहतरीन ।
अद्भुत।