वह मुक्त होकर
मांग रही थी तृप्ति
खुले आम मंच से
एक अतृप्त भटक रहा था
आनंद की तलाश में
तृप्त होना क्यों चाहती हो तुम
अतृप्ति ही तो जीवन है
तृप्त होकर ठहर जाना
रुक जाना
क्यों, जीवन का अंत नहीं है?
अगर पड़ाव को मंजिल नहीं बनाना है
तो अतृप्ति को स्वीकार करो।
अतृप्ति को स्वीकार करो--एक कविता---ललित शर्मा
ब्लॉ.ललित शर्मा, गुरुवार, 5 अगस्त 2010
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अतृप्ति ही तो जीवन है
तृप्त होकर ठहर जाना
गहन चिंतन ...सटीक और सार्थक....
क्यों, जीवन का अंत नहीं है?
अगर पड़ाव को मंजिल नहीं बनाना है
तो अतृप्ति को स्वीकार करो।
बहुत खुब ललित जी, धन्यवाद
अगर पड़ाव को मंजिल नहीं बनाना है
तो अतृप्ति को स्वीकार करो।
बहुत सही !!
बडी ही सटीक बात कह दी.....अतृप्तता मे ही तृप्तता छुपी है.
बहुत गहरी अभिव्यक्ति.
रामराम.
कहीं पढ़ी पंक्तियां याद आ रही हैं-
''फिर एक बार और जाल फेंक रे मछेरे,
जाने किस मछली में फंसने की चाह हो,
चंद्रमा के इर्द-गिर्द बादलों के घेरे,
ऐसे में क्यों न कोई मौसमी गुनाह हो.''