फागुनी मौसम हो गया है....प्रकृति ने अपनी मनोरम छटा बिखेर दी है....... कल शाम को खेतों की तरफ गया था तो देखा कि वातावरण में भीनी-भीनी खुशबु है जो मद मस्त कर दे रही है....... डूबते हुए सूरज की छटा निराली है. ऐसे उनका याद आ जाना गजब ढा गया........कभी इन खेतों में बेर.....अरहर.......तिवरा-लाखड़ी के लालच में आया करते थे......अब सिर्फ यादें ही शेष है........सूरज डूबता जा रहा है.....लालिमा बढ़ते जा रही है.......और उनकी याद गहराते जा रही है........अनायास ही कह उठता हूँ..............नया मौसम आया है जरा सा तुम संवर जाओ(इसके साथ ही डूबते हुए सूरज के कुछ चित्र मैंने खींचे थे उनका भी आनंद लीजिये)
फागुन में जरा सा तुम महक जाओ
नया मौसम आया है जरा सा तुम संवर जाओ
जरा सा हम बदल जाएँ, जरा सा तुम बदल जाओ
जमी ने भी ओढ़ ली है एक नयी चुनर वासंती
गुजारिश है के फागुन में जरा सा तुम महक जाओ
नए चंदा- सितारों से सजाओ मांग तुम अपनी
परिंदों के तरन्नुम में जरा सा तुम चहक जाओ
तुम्हारे पैर की पायल नया एक राग गाती है
जरा सा हम मचल जाएँ जरा सा तुम थिरक जाओ
"ललित" के मय के प्याले में तुम भी डूब लो साकी
जरा सा हम बहक जाएँ जरा सा तुम बहक जाओ
पलाश के पेड़ों के पीछे छुपने की कोशिश करता सुरज
आखिर क्षितिज से मिलन होना ही था
आपका
शिल्पकार,
जमी ने भी ओढ़ ली है एक नयी चुनर वासंती
गुजारिश है के फागुन में जरा सा तुम महक जाओ
नए चंदा- सितारों से सजाओ मांग तुम अपनी
परिंदों के तरन्नुम में जरा सा तुम चहक जाओ
वाह बहुत लाजवाब रचना.
रामराम.
तुम्हारे पैर की पायल नया एक राग गाती है
जरा सा हम मचल जाएँ जरा सा तुम थिरक जाओ
-बहुत उम्दा...वाह!
"ललित" के मय के प्याले में तुम भी डूब लो साकी
जरा सा हम बहक जाएँ जरा सा तुम बहक जाओ ..
पूरी रचना में महक है भाई जी.
बढ़िया रस छलकाया है!
दुःख की बदली छँटी, सूरज उगा विश्वास का,
जल रहा दीपक दिलों मे स्नेह ले उल्लास का,
ज्वर चढ़ा, पारा बढ़ा है प्यार के संसार पर।
दे रहा मधुमास दस्तक है हृदय के द्वार पर।।
बहुत ही उम्दा रचना
बहुत बडिया लगी फाल्गुनी रचना शुभकामनायें
"ललित" के मय के प्याले में तुम भी डूब लो साकी
जरा सा हम बहक जाएँ जरा सा तुम बहक जाओ
.....बहुत खूब ... बहुत बहुत बधाई !!!
Behad umda peshkash!!
Aabhar
जितनी लुभावनी रचना है उतने ही सुन्दर चित्र हैं ……………गज़ब की प्रस्तुति।
फागुन की फागुनमय रचना .....
बहुत सुंदर ..... बधाई
http://padmsingh.wordpress.com
बहुत ही उम्दा रचना,,,,,,,
बहुत सुंदर फ़ागुनी कविता... लेकिन एक बात समझ मै नही आती लोगो ने खेतो से पेड को काट दिये??
@ भाटि्या जी--अब खेतों में पेड कहां सब कट गए।
जंगल के आस-पास के खेतों मे हैं कुछ। मकान बनेंगे तो लकड़ी की जरुरत पड़ेगी ना।
bahut badhiya