पुरुष का जीवन मातृशक्ति के ईर्द-गिर्द ही घुमता है, उसे सबकी सुननी पड़ती है, माँ का हक होता है पुत्र पर तो पत्नी भी उतना ही हक जताती है फ़िर पुत्री भी पिता पर अपना हक प्रदर्शित करती है, इन सब के बीच उसे एक कुशल नट की तरह संतुलन बनाना पड़ता है, जरा सी भी चुक हुई और गृहस्थी धराशाई हो जाती है। फ़िर गृहस्थी बचाना हो तो तीनों में से किसी एक को गंवाना पड़ता है और ज्यादातर गाज माँ बेटे के संबधों पर गिरती है, पत्नी कहती है मेरा पति सिर्फ़ मेरा है, अगर तीनों को साथ लेकर चलना है तो कुशल प्रबंधन की आवश्यक्ता है क्योंकि यह एक महाभारत के युद्ध का मैदान जैसा है, जो हमेशा सजा रहता है पता नहीं रणभेरी कब बज जाए, प्रस्तुत है एक कविता, माँ-पत्नी और बेटी.......................
माँ-पत्नी और बेटी
पृथ्वी गोल घुमती है
ठीक मेरे जीवन की तरह
पृथ्वी की दो धुरियाँ हैं
उत्तर और दक्षिण
मेरी भी दो धुरियाँ हैं
माँ और पत्नी
मै इनके बीच में ही
घूमता रहता हूँ
माँ कहती है,
आँगन में आकर बैठ
खुली हवा में
पत्नी कहती है
अन्दर बैठो
बाहर धुल मच्छर हैं
माँ कहती है
तू कमाने बाहर मत जा
मेरी आँखों के सामने रह
थोड़े में ही गुजारा कर लेंगे
पत्नी कहती है
घर पर मत रहो
बाहर जाओ
घर में रह के
सठियाते जा रहे हो
बच्चों के लिए कुछ
कमा कर जमा करना है
माँ कहती है धीरे चले कर
चोट लग जायेगी
पत्नी कहती है
जल्दी चलो
अभी मंजिल दूर है
धीरे चलोगे तो
कब पहुंचोगे वहां पर
माँ कहती है
बुजुर्गों में बैठे कर
कुछ ज्ञान मिलेगा
पत्नी कहती है
बूढों में बैठोगे तो
तुम्हारा दिमाग सड़ जायेगा
इन बातों के बीच
एक तीसरी आ जाती है
बेटी भी कूद कर धम्म से
मेरी पीठ पर चढ़ जाती है
तब कहीं जाकर
मेरा संतुलन बनता है
वह भी कहती है/पापा
क्या मेरा वजन उठा सकते हो
मैं कहता हूँ
हाँ! बेटी क्यों नहीं?
इन दो धुरियों के बीच
फ़ुट बाल बनने के बाद
आज तेरे आने से मेरे जीवन में
कुछ स्थिरता बनी है
इन दो धुरियों के बीच
एक पूल का निर्माण हुआ है
मैं तो तुम तीनो की
आज्ञा की अवज्ञा नहीं कर सकता
क्योकि तुम तीनो हो मेरी
जनक-नियंता और विधायिका
आपका
शिल्पकार
बड़े ही गूढ और शाश्वत सवाल का हल निकालना चाह रहे हैं आप ! मेरी शुभकामनायें आपके साथ हैं ! माँ और पत्नी के बीच में बेटी निश्चित रूप से एंकर का काम करती है जो जीवन में स्थिरता, ठहराव और संतुलन तो लाती ही है उसे एक दिशा भी देती है ! सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार !
आपकी ये रचना यथार्थ सत्य को कह रही है...बेटी के माध्यम से जो संतुलन बनाया है..काबले तारीफ़ है...
मेरी भी दो धुरियाँ हैं
माँ और पत्नी
मै इनके बीच में ही
घूमता रहता हूँ
माँ कहती है,
आँगन में आकर बैठ
खुली हवा में
पत्नी कहती है
अन्दर बैठो
बाहर धुल मच्छर हैं
Bahut khoob lalit ji bahut khoob, I like this poem very much ! Aapko bhee dil kaa dard bataane kee buri aadat hai :)
माँ का हक होता है पुत्र पर तो पत्नी भी उतना ही हक जताती है फ़िर पुत्री भी पिता पर अपना हक प्रदर्शित करती है, इन सब के बीच उसे एक कुशल नट की तरह संतुलन बनाना पड़ता है....यथार्थ सत्य .
तुम तीनो हो मेरी जनक-नियंता और विधायिका
बहुत अच्छी लगी ये पंक्तियाँ
अपनी जिंदगी से जुडी नारी शक्ति के हर रूप के प्रति इतना आदर ...मन श्रद्धा से भर गया ...
बडी गहरी बात कह दी ललित,अपना अनुभव तो नही है लेकिन ज़माने को देख कर कह रहा हूं इससे अच्छा संतुलन मैंने कंही देखा नही।
बहुत ही गहरी बात बहुत ही सरल शब्दों में बयान कर दी।
आपने बहुत सुन्दर चित्रगीत प्रस्तुत किया है!
गंभीर चिंतन को सरल शब्दों में प्रस्तुत करते हुए बहुत अच्छी रचना!!
@ मंजु शर्मा जी
ई मेल द्वारा प्राप्त टिप्पणी
आपकी कविता पढ कर मै भाव विभोर हो गयी,
इतनी गहराई से संबंधो को समझना हर किसी के
बस की बात नही है। इसको एक कवि का हृदय ही
समझ सकता है।
आपका आभार
sunder kavita bani hai
बहुत ही सरल भाषा में बहुत ही गंभीर बातें कही है आपने . धन्यवाद !!
बहुत सुथरी बात कही भाई. आज तो पगडी उतार सलाम
रामराम.
गज़ब!! हर दिल में यहीं उमड़ता गुमड़ता है..आपने बहुत सहजता से बात रख दी..जय हो!! आपकी अब तक पढ़ी बेहतरीन रचनाओं में से एक.
बहुत खूब ललित जी।
क्योकि तुम तीनो हो मेरी
जनक-नियंता और विधायिका
तीनो रूपों को नमन
बहुत सुंदर रचना ....
मन प्रसन्न हो गया आज की रचना पढ़ कर
आप तक पहुँचने का रास्ता अंततः खोज ही लिया
अब तो मिलते रहेंगे ऐसे ही
बहुत बधाई सुंदर रचना के लिए
है भगवान..... आदमी तो फ़ुटवाल ही है, इधर से मां ने मारा पेर उधर से बीबी ने मारा. ओर ललू मियां फ़ुदकते रहो बीच मै फ़ुटवाल की तरह से... सुनो तीनो की , करो मन की सदा सुखी रहोगे जी
बहुत ही सुंदर ओर अनमोल रचना.
धन्यवाद
बहुत सुंदर रचना
बहुत गहरी बात
Badi gahari baat kahi is rachana ke madhyam se jivan ka yah sundar sanyojan aur santulan bana rahe yahi shubhkaamna hai ....Dhanywaad.
अपने जीवन की उलझन को कैसे मैं सुलझाऊं.. अपनों ने जो दर्द दिए हैं कैसे मैं बतलाऊं..
अत्यंत मार्मिक रचना
एक तरफ माँ की ममता
दूसरी ओर पत्नी की प्रेरणा
और संतुलन कायम रखने के
लिए बिटिया का आगमन
बहुत खूब!
इतने सारे ब्लोगों को खंगालते हुए मुश्किल से यहाँ तक पहुंची हूँ .....देखा तो ताऊ जी पगड़ी उतारे लठ लिए बैठे हैं ......पहले तो डर गयी ......बाद में पता चला वे लट्ठ से दोनों धुरियों के बीच संतुलन बनाये हैं .....!!
हास्य रूप से शुरू हुई इस कविता ने अंत में आकर मन मोह लिया .....!!
ललित जी,गहन विचारो के मन्थन का फल..यह सुन्दर रचना...उत्तम
bahut achche.
बहुत उम्दा बात कह गये...आनन्द आ गया...
आपकी ये रचना पहले भी पढी और आज भी हर बार एक नया अहसास देती है……………………यथार्थ का गहन चित्रण ………………सम्बन्धों का सन्तुलन काबिल-ए-तारीफ़ है।
इसे कहते हैं सीधी बात ... आपने जो सच सामने रखा है उसे तो शायद सभी लोग अनुभव करते होंगे पर सच इस तरह सामने लाने की हिम्मत बहुत कम लोगों में होती है ... एक तरफ ममता को खोने का डर तो दूसरी तरफ घर की शांति ...
सवाल अब ये है की नब्बे प्रतिशत घर की यही कहानी क्यूँ है? क्या बिव कभी भी सास नहीं बनेगी ... या फिर माँ कभी बहु नहीं थी ?
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चलती चाकी देखि के दिया कबीरा रोय
दो पाटन के बीच में साबित बचा न कोय
बहुत अच्छी रचना!!
बहुत सुन्दर कविता है। जीवन का सच। यथार्थ। हृदयस्पर्शी।
बहुत सुन्दर कविता है। जीवन का सच। यथार्थ। हृदयस्पर्शी।
बहुत ही भावपूर्ण रचना…………बिल्कुल सही कहा आपने………॥सामन्जस्य बैथाना कोई हंसीखेल नहीं………।बहुत सुन्दर
आपकी लेखनी को नमन... धन्य कर दिया आपने...