नास्तिक हो या आस्तिक सभी उस परम सत्ता को मानते हैं. अस्ति और नास्ति, है या नहीं है. नास्तिक कहता है नहीं है और वह इस पर अटल है. मरने मरने पर उतारू है. आस्तिक कहता है वह है और वह भी अपने कथन पर अटल है और मरने मारने पर उतारू है. नास्तिक नहीं है पर अगाध विश्वास करता है. नास्तिक "नहीं है" को मान रहा है. आस्तिक "वह है" को मान रहा है. दोनों अटल हैं और दोनों मान रहे हैं. यही दुनिया और संसार है. अपने अपने तरीके से परम सत्ता को स्वीकार कर रहे हैं. मैं भी स्वीकार करता हूँ वह परम सत्ता हमारे साथ किसी ना किसी रूप में विद्यमान है. "वह है" और "नहीं है' के रूप में. आज मैं एक भजन सरीखा आत्म चिंतन का गीत आपके लिए लाया हूँ. आओ इस २००९ के अंतिम दिन हम उस प्रभु का स्मरण किसी ना किसी रूप में कर लें. और उसके प्रति कृतज्ञता प्रकट कर लें. यही मेरी अभिलाषा है.
भेजा है क्यों भगवन तुने अपने इस संसार में
हाथ जोड़ चितन करता हूँ, खड़ा हुआ दरबार में
लक्ष्य कहाँ है?मेरा भगवन अब तक ढूंढ़ ना पाया हूँ
मैं कौन हूँ? बड़ा प्रश्न है, पास तेरे मैं आया हूँ
तृष्णा के वन में भटका, डूबा रहा श्रृंगार में
हाथ जोड़ चितन करता हूँ, खड़ा हुआ दरबार में
अक्षर ब्रह्म तो तुने दिया, पर रचना ना कर पाया
साज श्रृंगार तो सब किया, पर सजना ना बन पाया
दूर करो दुर्बुद्धि सब तुम, सदगुण भरो विचार में
हाथ जोड़ चितन करता हूँ, खड़ा हुआ दरबार में
चेतन मन तो नहीं हुआ है, चारों ओर मोह माया है
मनुज-मनुज में भेद हुआ है, अंधकार सब छाया है.
दूर करो कलुष जीवन के, लगे मन सहकार में
हाथ जोड़ चितन करता हूँ, खड़ा हुआ दरबार में
होवे प्रीत सभी प्राणी में, मन में करुणा भर दो तुम
भटका हुआ राही हूँ मै, सच की राह दिखा दो तुम
प्रचंड प्रकाश का उदय करो, अंतर के अंधकार में
हाथ जोड़ चितन करता हूँ, खड़ा हुआ दरबार में
भेजा है क्यों भगवन तुने अपने इस संसार में
हाथ जोड़ चितन करता हूँ, खड़ा हुआ दरबार में
सभी को नूतन वर्ष 2010 की अशेष शुभकामनायें
आपका
शिल्पकार