संत पवन दीवान जी ने अपनी एक कविता " ओ महाकाल " अपने काव्य संकलन "अम्बर का आशीष" के विमोचन के अवसर पर सुनाई थी। उन्होने कहा कि आज राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता है, छोटी-छोटी एकता मिलकर बड़ी एकता बनती है। इस कविता का पॉडकास्ट सुनिए।
ओ महाकाल
ओ महाकाल तुम कब दोगे
जीने के लिले हमें दो क्षण
हम किस पृथ्वी पर बैठे हैं
पांवों में क्यों भर रहा गगन
उड़ने वाले चेहरे किसके
सूने में लटके हाथ
यह अंतहीन पथ किसका है
अंकित हैं छोड़े हुए साथ
आँखें ही आँखें हैं उपर
केवल आँखे ही आँखे हैं
कुछ मांस अस्थियाँ नहीं शेष
उतराती टूटी पांखे हैं
ये निष्फ़ल खड़ी याचनाएं
दरवाजों पर क्यों टूट रही
कांचों ने पत्थर तोड़ दिए
खिड़कियाँ हवाएं लूट रही है
चर मर करती कुर्सियाँ हाय
यह देश बैठता जाता है
जितना हर धागे को खोलो
उतना ही ऐंठता जाता है
कुछ राष्ट्र देवता को समेट कर
हर पत्थर में समा गए
अपने वंशों की पुस्तक पर
संस्करण दूसरा जमा गए
रास्ते पर पड़ा एक चेहरा
कितना निर्जन कितना उदास
वह किसका है,कुछ पता नहीं
परिचय को कोई नहीं पास
उसकी नहीं जरुरत कोई
इस पगलाई हुई भीड़ में
पत्नी बच्चे लटक रहे हैं
मंहगाई के किसी चीड़ में
किन राहों में चप्पलें फ़टी
जुड़ते-जुड़ते गल गए हाथ
आँखे हैं पर पुतलियाँ नहीं
खाई-खाई बंट गया ग्राम
वह देह नहीं है प्राण नहीं
केवल विनाश का सड़ा शेष
है कहाँ मेरे तन के नक्शे
कैसा है अपना जन्म देश
जिन्दगी जिसे तुम कहते हो
जिसको तुम कहते रहे प्यार
उस चेहरे का हो सका नहीं
कोई दर्पण एक बार
अब तक पड़ा हुआ वह चेहरा
हर आकृति को कराहता है
लेकिन उसकी जीभ नहीं है
कहता नहीं क्या चाहता है
लेकिन मुझे पता है सब कुछ
वह हम सबको श्राप रहा है
कितना बड़ा देश है उसका
वह पलकों से नाप रहा है
पड़ा रह गया वहीं चेहरा
तो चौराहा जल जाएगा
उसके रिसते हुए दर्द से
हृदय देश का गल जाएगा
रुक जाओ कुछ और देख लो
शायद कोई उसे उठा ले
विस्फ़ोटों का सुत्र काट कर
सब चेहरों का नाश बचा ले
पवन दीवान
ग्राम किरवई (राजिम)
जिला रायपुर छत्तीसगढ