मैं सोचता था
कविता में सिर्फ़ भाव होते हैं
जो अंतरमन से उतरते हुए
कागज पर अपना रुप लेते है
लेकिन जब कविता
तुम्हारे पास पहुंचती है तो
उसमें क्या-क्या नहीं ढूंढ लेते तुम
गांधारी आंखो से
विदुर दृष्टिकोण तुम्हारा
ढूंढ लेता है
शिल्प,बिंब, अलंकार, व्यथा
व्याकरण, छंद, समास
अतिश्योक्ति, रस और श्रंगार
वियोग,करुणा, रसखान
जो मुझे नहीं दिख पाते
वंदन है तुम्हारी गांधारी दृष्टि का
आपका
शिल्पकार
तुम्हारी गांधारी दृष्टि
ब्लॉ.ललित शर्मा, सोमवार, 15 नवंबर 2010
लेबल:
-ललित शर्मा,
कविता,
शिल्पकार
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
गांधारी दृष्टि का यह रूप बहुत अच्छा लगा ...
bilkul thik bole aap har kavit ko log aap aap anubav se dekhte hai
वाह! इस गांधारी दृष्टि को सच मे नमन्…………क्या खूब लिखा है।
गांधारी दृष्टि बिलकुल नया प्रयोग है ।
गांधारी दृष्टि बहुत सुन्दर बिम्ब । अच्छी लगी रचना
बधाई।
bahut hi sarthak avmprashasniy prastuti.ban aakhon se sab kuchh dekhna ek shilpkar ki drishti se hi sambhav hai.
bahut badhiya
poonam
अद्भुत रचना... बहुत सुन्दर बिम्ब... लाजवाब