भाई योगेन्द्र मौदगिल के गजल संग्रह ‘अंधी आँखे-गीले सपने” से एक गजल प्रस्तुत कर रहा हूँ।
बढ रही मंहगाई हमको आजमाने के लिए।
आदमी जिंदा है केवल तिलमिलाने के लिए।
बेकसी बढती रही गर दाने-दाने के लिए।
तन पड़ेगा झोंकना चूल्हा जलाने के लिए।
प्याज ने आँसू निकाले, देख बेसन ने कहा।
चाहिए अब तो कलेजा, हमको खाने के लिए।
इतनी ऊँची कूद मारी इस उड़द की दाल ने।
लोन अब लेना पड़ेगा दाल खाने के लिए।
सोचता हूं वो जमाना खूब था,जब हम पढ लिए।
दिन में तारे दिख गए, बच्चे पढाने के लिए।
नौकरी जब ना मिली तो उसने किडनी बेच दी।
दो निवाले भूखे बच्चों को खिलाने के लिए।
इक चटाई, एक धोती, एक छ्प्पर, एक घड़ा।
उम्र सारी काट दी इनको बचाने के लिए।
भूख ने तड़फ़ा दिया तो बेईमानी सीख ली।
शुक्रिया रब्बा तेरा ये दिन दिखाने के लिए।
तन पे है बनियान चड्डी,दोनों के, पर फ़र्क है।
इक छिपाने के लिए और इक दिखाने के लिए।
भन गया मैं भी मिनिस्टर, भोली जनता शुक्रिया।
मिल गया लाईसेंस मुझको देख खाने के लिए।
माफ़िया का क्या गजब का शौक है भैइ देख लो।
वर्दियों को पाल रक्खा दुम हिलाने के लिए।
चंद वादे, चंद नारे, चंद चमचे “मौदगिल’
पर्याप्त हैं इस देश की संसद में जाने के लिए।
बढ रही मंहगाई हमको आजमाने के लिए
ब्लॉ.ललित शर्मा, शनिवार, 25 दिसंबर 2010
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bahut badiya ji
नौकरी जब ना मिली तो उसने किडनी बेच दी।
दो निवाले भूखे बच्चों को खिलाने के लिए।
इक चटाई, एक धोती, एक छ्प्पर, एक घड़ा।
उम्र सारी काट दी इनको बचाने के लिए
मौदगिल जी की रचना पढवाने के लिए आभार ....आज के कठिन जीवन का पूरा खाका खींच दिया
बहुत सुंदर रचना .. टाइपिंग में तीन स्थानों पर वर्तनी की अशुद्धि रह गयी है !!
समसामयिक परिस्थितियों को सुन्दर ढंग से वर्णित करती बेह्तरीन गजल !
इस खुब्सूरत रचना के लिये मौदगिल सहाब को बधाई !
वाह जी बहुत खुब. धन्यवाद
सटीक, सामयिक रचना है। आप दोनों को धन्यवाद!
abhinav rachna
आदमी जिंदा है केवल तिलमिलाने के लिए।
तन पड़ेगा झोंकना चूल्हा जलाने के लिए।
तल्ख़ हक़ीक़त। बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
एक आत्मचेतना कलाकार
हकीकत बयान करती ह्रदय-स्पर्शी गज़ल. भाई योगेन्द्र मौदगिल को बधाई और प्रस्तुतिकरण के लिए आपका आभार .
बढ रही मंहगाई हमको आजमाने के लिए।
आदमी जिंदा है केवल तिलमिलाने के लिए।
बेकसी बढती रही गर दाने-दाने के लिए।
तन पड़ेगा झोंकना चूल्हा जलाने के लिए। मंजा आगे महराज । जय हो ।
बेहतर...
कुछ अश्आर तो बहुत खूब...
lalit ji shukirya is gazal ko padhane ke liye.
ek baat sach aaj dil me aa rahi hai ki is gazal ko ga ga kar vote maange ke time un netaao ko sunaya jaye jo desh bhakti ke geet us samay le kar chalte hain....ek tara unka desh bhakti ka geet ho...aur dusri taraf is gazal ke tez awaaz me bol hon tab dekho neta apne gharo me ghuste nazar aayenge.
ह्रदय-स्पर्शी गज़ल है.. भाई योगेन्द्र मौदगिल को बधाई.....
चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना कल मंगलवार 28 -12 -2010
को ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..
http://charchamanch.uchcharan.com/
शानदार प्रस्तुति, आपका आभार.
महंगाई ने सब कुछ बदल दिया , बस संसद में बैठे लोगों का कुछ नहीं बदलता ...
वहां जाने के उपाय भी बता दिए इस कविता में ...
ताज़ा मुद्दे पर कविता पढवाने के लिए बहुत आभार !
समसामयिक परिस्थितियों पर बहुत यथार्थपरक सटीक चोट..बहुत सुन्दर प्रस्तुति
खुब्सूरत रचना
....आप को नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाये ..
बेहद खूबसूरत और ज़बरदस्त रचना. आभार पढवाने के लिए.
आपको और आपके परिवार को नव वर्ष की अनंत मंगलकामनाएं
नौकरी जब ना मिली तो उसने किडनी बेच दी।
दो निवाले भूखे बच्चों को खिलाने के लिए।
इक चटाई, एक धोती, एक छ्प्पर, एक घड़ा।
उम्र सारी काट दी इनको बचाने के लिए।
बहुत बढ़िया ... बधाई