
नहीं देख सकती
पत्थर ढोना ही मेरी किस्मत में लिखा था
पहाड़ तोड़ना ही मेरी किस्मत में लिखा था
पत्थरों को तराश कर उसके बुत बनाये मेने
भूखे पेट मरना ही मेरी किस्मत में लिखा था
बहुत कोडे बरसाए थे उसने मेरी पीठ पर
जख्मो का दर्द ही मेरी किस्मत में लिखा था
पहाडों को तोड़ कर उनके लिए महल बनाये हैं मैंने
दीवारों में चुना जाना मेरी किस्मत में लिखा था
शाहकार बनने पर वे कटवा देंगे मेरे दोनों हाथ
उनका येही इनाम मेरी किस्मत में लिखा था
आपका
शिल्पकार
(फोटो गूगल से साभार)
एक बीज से आस जगी थी,मृगतृष्णा सी प्यास जगी थी,
सारा चौपाल सूना-सूना था, जैसे गांव में आग लगी थी,
चारों तरफ़ सन्नाटा-ही सन्नाटा,जैसे कोई सन्निपात हो गया,
उगे बीज को मरते देखा,
जैसे कोई गर्भपात हो गया।
तेरे इस विशाल नीले आँचल में, पंख फैलाये उड़ता था मै,
प्रगति के नए सोपानों में, नित्य सितारे जड़ता था मै,
मुझसे क्या अपराध हो गया, मुझ पर क्यों आघात हो गया,
उगे बीज को मरते देखा,
जैसे कोई गर्भपात हो गया,
पहले भी मै तडफा-तरसा था, तू कभी न समय पर बरसा था,
लिए हाथ में धान कटोरा, मै फ़िर भी बहुत - बहुत हर्षा था,
नई सुबह की आशा में था, सहसा ही वज्रपात हो गया,
उगे बीज को मरते देखा,
जैसे कोई गर्भपात हो गया,
गीली मेड की इस फिसलन पर, मै बहुत दूर जा फिसला हूं,
तेरे कृपा की आस लिए मै,नित तुझको ही भजता हूँ,
डोला गगन आ गया विप्लव,जैसे कोई उल्का पात हो गया,
उगे बीज को मरते देखा,
जैसे कोई गर्भपात हो गया,
असमय बरसा तो क्यों बरसा,चारों तरफ हा-हा कार हो गया,
जिस पर अभी यौवन आना था,वो जीवन से बेजार हो गया,
तेरी इस असमय वर्षा पर, रोऊँ या मै जान लुटा दूँ,
लूटा-पिटा बैठा हूँ अब मै ,जैसे कोई पक्षाघात हो गया,
उगे बीज को मरते देखा,
जैसे कोई गर्भपात हो गया।
आपका
शिल्पकार
(फोटो गूगल से साभार)
मुझे अब नंगे, पाँव ही चलने दो,
जूतियों का इंतजार, अब कौन करेगा,
तपती दुपहरी को, और भी चढ़ने दो,
छतरियों का इंतजार,अब कौन करेगा।
पाँव के छालों को, और भी बढ़ने दो,
मरहम का इंतजार, अब कौन करेगा।
आँखों से आंसुओं को,और भी बह जाने दो,
पोंछने का इंतजार, अब कौन करेगा।
मुझे अब तुम जिन्दा ही जला डालो,
मौत का इंतजार अब कौन करेगा।
आपका
शिल्पकार
हरियाली के चादर ओढे, देखो मेरा सारा गांव ,
झूम के बरसी बरखा रानी,थिरक उठे हैं पांव,
मेरे थिरक उठे हैं पांव,
खेतों में है हल चल रहे, बूढे पीपल पर हरियाली,
अल्हड बालाओं ने भी, डाली पींगे सावन वाली,
गोरैया के संग-संग मै भी, अपने पर फैलाऊ,
मेरे थिरक उठे हैं पांव,
छानी पर फूलों की बेले,बेलों पर बेले ही बेले,
नवयोवना सरिता पर भी हैं,लहरों के रेले ही रेले,
हमको है ये पर कराती, एक मांझी की नाव,
मेरे थिरक उठे हैं पांव,
भरे हैं सब ताल-तलैया,झूमी है अब धरती मैया,
मेघों ने भी डाला डेरा, छुप गए हैं अब सूरज भैया,
गाय-बैल सब घूम-ग़म कर,बैठे अपनी ठांव,
देखो मेरा सारा गांव,मेरे थिरक उठे हैं पांव।
आपका
शिल्पकार
( चित्र गूगल से साभार)
राजस्थान के सीकर जिले के श्यामपुर गांव मेंअपनी छोटी सी दुकान लगा कर जैसे-तैसे गुजर बसर करने वाले लक्ष्मन जांगिड के पुत्र करणजांगिड को घर के सामने सडक पार करते हुए एक तेजी से आती हुई बोलेरो गाड़ी ने टक्कर मार दी। इस टक्कर से करण बुरी तरह जख्मी हो गया, उसके दोनों पैर बुरी तरह कुचल गए। सीकर के अस्पताल से इसे एस एम् एस जयपुर भेज दिया गया। जहाँ वो वर्ड २ ऍफ़ में भरती है, इस परिवार ने आर्थिक तंगहाली के बावजूद अपने बच्चे को बचाने में अपनी सारी जमा पूंजी लगा दी। लेकिन दवाएं काफी महंगी होने के कारणअब वे इस इलाज का खर्च उठाने में असमर्थ हैं.पुत्र के साथ घटी इस दुर्घटना ने इन्हे तोड़ कर रख दिया। इनके पास कोई जमीं जायदाद भी नही है। पास-पड़ोसियों से भी कर्जा लेकर इलाज में लगा दिया। अब यह परिवार एक-एक पैसे को मोहताज हो गया है।
(लार्ड विश्वकर्मा इंटरनेशनल टाईम्स पाक्षिक १५ जुलाई टोंक राजस्थान से प्रकाशित)
यह समस्या सिर्फ़ एक कर्ण जांगिड-लक्ष्मन जांगिड के परिवार की नही है। राजस्थान का यह जांगिड समाज वैदिक काल से ही तकनिकी एवं निर्माण का कार्य ही करते आया है। यह समाज तकनिकी की दृष्टी से उन्नत समाज है । जहाँ कंही भी निर्माण होता है उसमे इनकी भागीदारी अवश्य होती है। इनके पास कृषी की जमीने नही होती थी क्योंकि ये तो निर्माण कर्मी तकनिकी वर्ग था, जहाँ भी कम मिला,अपने ओजारों की पेटी उठाई और काम करने चल दिए, इस तरह ये निर्माण की आवश्यकता पर पलायन करते थे। गांव में इनके पास रहने की ही जमीन होती थी। जो राजा महाराजा या जमींदार उपलब्ध कराते थे। मूलत: यह जाती कुशल कारीगर जाती है। ओउद्योगीकरण के कारण कालांतर में निर्माण से सम्बंधित कार्य मशीने करने लगी। इनके हाथ से रोजगार जाते रहा। तत्कालिन सरकारों ने भी इस वर्ग के व्यावसायिक पुनर्वास के लिए कोई ध्यान नही दिया। जिसके कारण यह कुशल कारीगर समाज बिना किसी सरकारी सहायता या कार्यक्रमों के अपने दुर्भाग्य से सिर्फ़ निर्माण के देवता "भगवन विश्वकर्मा" के सहारे ही लड़ रहा है। इस समाज ने इस संसार को तकनिकी रूप से समृद्ध किया है। इंजनियरिंग कालेजों से पहले इनकी वर्कशॉप ही कोलेज हुआ करती थी। जहाँ तकनिकी का गियान मिलता था।
आज इस समुदाय में शिक्षा का भी बहुत आभाव है,जिसके कारण विकास के उजास की किरने अभी तक नही पहुँच पाई हैं। इसका एक मुख्या कारण गरीबी भी है। क्योंकि काम में हेल्पर रख कर उसे मजदूरी देने की बजाय अपने ८-१० साल के बच्चे को ही काम में लगा लेते हैं। पढ़ लिख कर क्या करेगा? ये काम तो करना है। जल्दी सीख लेगा तो बाप बेटे दोनों की कमाई से परिवार की स्थिति सुधरेगी। ये सोच उसके मानस में उपजने लगती है। कम उम्र में ही रंदा ख्निचने के कारण बच्चे का मन भी पढ़ाई में नही लग पाता। आज जिस पञ्च शिल्पी समाज ने सारी दुनिया को सभ्यता के चरम सीमा तक पहुंचाया ,जिसने आकाश की ऊंचाई नापने के साधनों से लेकर समुन्दर की तलहटी तक को खंगालने के साधन दिए वह ही आज अपने अस्तित्व को बचाने की गुहार लगा रहा है। चाँद की धरती पर पहला कदम रखने वाला भी परम्परागत शिल्पी वर्ग से नील आर्म्स कारपेंटर था।
ये कैसी विडम्बना है। इसी लिए मैं कहता हूँ।
{ रोज़ी-रोज़गार पर अगर आंच आए , तो टकराना जरुरी है।
अगर वो समाज जिन्दा है, तो उसे नजर आना भी जरुरी है।}
आपका
शिल्पकार
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