नव वधु सी
लजाती
सकुचाती आई
वह कविता
बिना टिप्पणी
बैरंग लिफ़ाफ़े सी
लौट आई
वह कविता
कुछ दिन बाद
कविता का स्वंयवर
रचा गया
कर माल लिए
रावण को वर आई
वह कविता
क्योंकि
भरी सभा मे
रावण ने धनुष
खंडित किया
अप्रीतम को
वर आई
वह कविता
आपका
शिल्पकार
कविता का स्वंयवर!!
ब्लॉ.ललित शर्मा, रविवार, 31 जनवरी 2010इसे अवश्य पढिए-अच्छे लोग किनारे हो गए!!!
ब्लॉ.ललित शर्मा, शुक्रवार, 29 जनवरी 2010Girish: अच्छे लोग किनारे हो गए/ मंचो पर हत्यारे हो गए
ललित: काले पीले सारे हो गए/सच्चे सब बेचारे हो गए
Girish: लुच्चो का है राज यहाँ पर/ श्वेत सभी कजरारे हो गए.
ललित: मेहनत कश को रोटी नही, चमचों के चटखारे हो गए
Girish: काम यहाँ कुछ कैसे होगा/ खाली-पीली नारे हो गए
ललित: डंडा लेकर घुमने वाले/उनकी आंखो के तारे हो गए
Girish: जो कमजोर बहुत थे वे ही. सत्ता के सहारे हो गए.
शातिर खुल्ले घूम रहे है. हम अल्ला को प्यारे हो गए....
ललित:सच की राह पे चलने वाले / देखो अब बेसहारे हो गए
Girish: सत्ता पाकर दो कौड़ी भी/ आसमान के तारे हो गए
ललित: छाती पीट पीट के लगाते थे/ झुठे वे सब नारे हो गए
खुन बह रहा है गलियों मे/ नेता सब हत्यारे हो गए
अब इस तरह यह मजमुआ गजल तैयार हो गई, जैसे थी वैसी ही प्रस्तुत कर रहा हूँ. आखरी की दो पंक्तियाँ
ललित: वैसे ही ग़ज़ल मजमुआ हो गयी
लाँघ पाऊँ बाधाओं को!!
ब्लॉ.ललित शर्मा, गुरुवार, 28 जनवरी 2010मरीचिका
मृगतृष्णा
अतृप्त चक्षु
अतृप्त आत्मा
मन चातक
व्याकुल अनवरत
जीवन दुर्भर
कांक्रीट की दीवारें
टूटती नहीं
बाधाएं लाँघ नहीं पाया
अग्नि ज्वालायें
धधकती सीने में
पुन: उर्जा
निर्मित करने
पुन: कोशिश करूँ
लाँघ पाऊँ बाधाओं को
तृप्ति तभी संभव है.
आपका
शिल्पकार
जागो मेरे प्यारे धरती पुत्रों -अपना लक्ष्य संधान करो-गणतंत्र दिवस
ब्लॉ.ललित शर्मा, मंगलवार, 26 जनवरी 2010आपका
शिल्पकार
चित्र गुगल से साभार
एक कवि लड़ रहा दो मोर्चों पर-लोकतंत्र शर्मिंदा है!! (गिरीश पंकज)
ब्लॉ.ललित शर्मा, सोमवार, 25 जनवरी 2010जनता को ये रौंद रहे है, देखो बरमबार बहुत.
कहीं पे डंडा चलता है तो कही पे थप्पड़ भारी.
लोकतंत्र की छाती पर अब ये कुर्सी हत्यारी.
नीच हो गयी नीक व्यवस्था, घायल श्वेत परिंदा है.
लोकतंत्र शर्मिंदा है. यहाँ अफसरी ज़िंदा है.
खुले आम अब लोग पिट रहे, कैसा है जनतंत्र
जनता ही मारी जाती है, रोज़ नया षड्यंत्र .
अफसर जालिम बन बैठे है, अंगरेजी संतानें.
इनको हम ही पाल रहे , कोई माने या ना माने.
जनता का हर इन्कलाब भी इनको लगता निंदा है.
लोकतंत्र शर्मिंदा है. यहाँ अफसरी ज़िंदा है.
उठो-उठो ओ सारे मुर्दों, अब थोड़ा चिल्लाओ तुम.
जहाँ पराजित लोकतंत्र हो, बिलकुल शोर मचाओ तुम.
देश में अफसर नही, देश की जनता का ही शासन है.
हाय अभी तक यहाँ हंस रहा, दुर्योधन-दुशासन है.
लोकतंत्र का हर हत्यारा, अफसर नहीं दरिंदा है.
लोकतंत्र शर्मिंदा है. यहाँ अफसरी ज़िंदा है...
आपका
शिल्पकार
इंसानो जैसे दुसरों पर नहीं हंसते बंदर!!
ब्लॉ.ललित शर्मा, शनिवार, 23 जनवरी 2010अखबारी कविता-रद्दी पेप्योर से उठाए गए शीर्षक-आशीर्वाद चाहुंगा
आक्रामक तेवर
नही चलाने देगें टैक्सी
सरकार का कोई
लेना देना नही
सबसे बड़ी गिरावट
इस साल की
एक और
टैक्सी चालक पर हमला
धुमिल होती छवि
एक्सरसाईज से
पाएं चेहरे मे रौनक
ये काले दाग
हटेंगे कैसे?
इंसानो जैसे दुसरों पर
नहीं हंसते बंदर
आपका
शिल्पकार
अब बोझा उतार दो एटलस!!
ब्लॉ.ललित शर्मा, शुक्रवार, 22 जनवरी 2010बसंतागमन
जुझ रही हैं कोहरे से
सुर्यकुमारियाँ
किसी मजदुर की तरह
एक जुन की रोटी के लिए
बोझा ढोता एटलस
पृथ्वी का भार
कांधे पर लादे
चलता है अनवरत
भुख मिटाने के लिए
पर्चे बांटे जा रहे हैं
बाजार मे
भुख मिटाने वाला
सल्युशन बनकर है
तैयार
अब बोझा उतार दो
एटलस
आपका
शिल्पकार
कब तक युवा रहेगा बसंत?
ब्लॉ.ललित शर्मा, गुरुवार, 21 जनवरी 2010सुरसा मुख सी
बढती मंहगाई
कोल्हु के बैल कंधों पर
गृहस्थी का जुड़ा डाले
प्राण वायु मे घुलता जहर
रसायन से मौत उगलते खेत
बोझ से झुकी कमर
दीमक लगी उमर
जो नित चाट रही
जीवन रेखा
घुटने साथ नही देते
लेकिन
वो कहते हैं
बसंत बुढा नही होता
कोई उनसे पूछे
मोतियाबिंद से
अंधी हुई आंखे लेकर
मधुमेह ग्रसित
देह लेकर
धृतराष्ट्री व्यवस्था में
कब तक युवा रहेगा
बसंत
आपका
शिल्पकार
आएगा ॠतुराज बसंत मेरे द्वार!!
ब्लॉ.ललित शर्मा, बुधवार, 20 जनवरी 2010आज यादों के सुमन खिले हैं
फ़िर खुला सपनों का आगार
क्युं मेरा मन विकल हुआ है
आएगा ॠतुराज बसंत मेरे द्वार
आज बसंत का जन्म दिवस है
क्युं टीसें उठ रही है इस दिल में
तुम्हारी खोयी हुई यादो की पुन:
ज्युं कली खिली हो इस दिल मे
बसंत आया फ़िर क्युं वीरान है
इन जागी उम्मीदों का चमन
क्युं राज छिपा के इस दिल मे
आनंदित नही है कोई सुमन
लिए बैठा हुँ इक आस चमन मे
चुपके से कहीं कोई फ़िर आएगा
भर कर झोली मे बासंती रंग
अपने दोनो हाथों से खुब लुटायेगा
मेरा स्वप्न कभी साकार न हुआ
ना ही कहीं बसंत फ़िर आएगा
वही कांटों की सेज और तनहाई
वह ललित बसंत फ़िर नही आएगा
आपका
शिल्पकार
जीत लिया युद्ध!
ब्लॉ.ललित शर्मा, मंगलवार, 19 जनवरी 2010आपका
शिल्पकार
पनघट मैं जाऊं कैसे?
ब्लॉ.ललित शर्मा, सोमवार, 18 जनवरी 20103043 के बाद सस्ती होगी शक्कर (कविता)
ब्लॉ.ललित शर्मा, शनिवार, 16 जनवरी 2010आज सुबह का अखबार उठाया और पढने लगा, उसके शीर्षकों पर ध्यान दिया तो थोड़ी मेहनत से कुछ क्षणिकाओं का जन्म हुआ, बस यूँ ही बन गई. आपसे आशीर्वाद चाहूँगा.
(१)
इस बार का
बजट चुनौती पूर्ण
अर्थ शास्त्री ने
दिये अर्थ मंत्र
नि:शुल्क
प्लास्टिक सर्जरी कराएँ
छवि सुधारें
(२)
फैसला आज सम्भव
रानी जल्द बनेगी दुल्हन
सुनहले पल
कोरिया के राष्ट्रपति
होंगे चीफ गेस्ट
(३)
तोहफों की बौछार
जनकल्याण कारी दिवस पर
मनमोहन से महंगाई नहीं संभली
सरकार में बगावत
शेयर बाजार में गिरावट
क़यामत की घडी
(४)
शादी करने को
तैयार है शाहिद
इडियट्स को पाठ
बच्चों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़
(५)
अद्भुत
सूर्य ग्रहण
3043 के बाद
कम्पनियों से
गिफ्ट नहीं ले सकेंगे
सस्ती होगी शक्कर
आपका
शिल्पकार
मुआवजे का नमक!!
ब्लॉ.ललित शर्मा, बुधवार, 13 जनवरी 2010आज एक कविता फिर पुरानी डायरी से लिख रहा हूँ. इस पर डॉ. के.डी.सारस्वत ने अपनी कलम चलाई थी. आज से ६ वर्ष पूर्व उनकी हत्या स्नातक महाविद्यालय के प्राचार्य पद पर रहते हुए कर दी गई थी. अब उनकी यादें ही शेष है.
श्मशान
सिर्फ श्मशान
जहाँ एक भयावह चुप्पी
और नीरवता रहती है
घनघोर अँधेरे से
अपनी बात कहती है
श्मशान की चार दीवारी से
लगा बहता है एक नाला
नाला नहीं
दुखो और आंसुओं का सैलाब
देखी है उसने चिताए खुशियों की
जहाँ दफन हैं गुलाब
एक बेशरम का झुण्ड
उसके साथ कुछ नरमुंड
जाता रहे थे सहानुभूति
साथ लाये थे
मुआवजे का नमक
रिसते जख्मो पर मलने के लिए
तड़फते सिसकते लोगों,
परिजनों के बीच
बेशर्मी से खड़े हैं.
वोटों की राजनीति ने
इन्हें आदमी से
हैवान बना डाला
मैं सोच रहा था.
इनको कभी श्मशान बैराग
क्यों नहीं व्यापता?
बस एक प्रश्न करता हूँ
कितनी हुयी विधवाएं?
कितने हुए अनाथ?
क्यों आये शमशान में?
एक प्रश्न चिन्ह है साथ.
(बेशरम= हमारे यहाँ उगने वाली एक तरह की झाड़ी है. जो काट कर फेंक देने से कहीं पर भी अपनी जड़ें जमा लेती है.)
आपका
शिल्पकार,
एक जून की रोटी को तरसा!!
ब्लॉ.ललित शर्मा, मंगलवार, 12 जनवरी 2010दुनिया बनाई देखो उसने कितना वह भी मजबूर था
एक जून की रोटी को तरसा मेरे देश का मजदूर था
चंहु ओर हरियाली की देखो एक चादर सी फैली है
यही देखने खातिर उसने भूख धूप भी झेली है
अपने लहू से सींचा धरा को वह भी बड़ा मगरूर था
एक जून की रोटी को तरसा मेरे देश का मजदूर था
महल किले गढ़े हैं उसने, बहुत ही बात निराली है
पसीने का मोल मिला ना पर खाई उसने गाली है
सर छुपाने को छत नहीं है ये कैसा दस्तूर था
एक जून की रोटी को तरसा मेरे देश का मजदूर था
पैदा किया अनाज उसने, पूरी जवानी गंवाई थी
मरकर कफ़न नसीब न हुआ ये कैसी कमाई थी
अपना सब कुछ दे डाला था दानी बड़ा जरूर था
एक जून की रोटी को तरसा मेरे देश का मजदूर था
आपका
शिल्पकार
टुटा भरम!!!( एक पुरानी कविता)
ब्लॉ.ललित शर्मा, सोमवार, 11 जनवरी 2010बस! अब और नहीं!!!!
ब्लॉ.ललित शर्मा, रविवार, 10 जनवरी 2010बस!
अब और नहीं!
मौत का तांडव
देखने वाले
एक जिन्दा आदमी
की आवाज
निर्दोष लोगों को
निगल गया
मौत का वह बेरहम साज
जिसने भी देखा
उसके नैन हुयें रुन्वसे
छोटी सी गुडिया छीन गई
उस मासूम हाथ से
मौन निगल गई उसे
मध्य आकाश से
जिधर देखो उधर
लाशों के चीथड़े हैं
कई प्रियजन
एक दुसरे से बिछड़े हैं
अब हम अपने दिल का दर्द
किस्से कहें
साँप तो डस गया
बस! लकीर पीटते रहें
आपका
शिल्पकार
आपका
शिल्पकार
ये राजनितिक संकट की घडी है !!!
ब्लॉ.ललित शर्मा, शुक्रवार, 8 जनवरी 2010शासकीय अधिकारों का विकेन्द्री करण हमेश ऐसी समय खड़ी करता है कि एक छोटा सा काम भी होना कितना कठिन हो जाता है. एक आम आदमी तो थक कर घर में ही बैठ जाता है. एक कविता है आपसे आशीर्वाद चाहूँगा.
शिल्पकार,
हाथ सेक रहे हैं चिताओं पर !!!
ब्लॉ.ललित शर्मा, गुरुवार, 7 जनवरी 2010देश की हालत दिनों दिन ख़राब होती जा रही है. सियासत में सब अपना स्वार्थ देख रहे हैं महंगाई आसमान छु रही है. विकास की बातें बेमानी हो रही हैं. अब तो एक समय का खाना भी जुटाना मुश्किल हो गया है. पर कब चेतेगी सरकार.
(1)
देश
की प्रगति
और विकास
सायकिल से
मंगल पर
जाने का प्रयास
(2)
मचा
सियासी दंगल
सर्दी में
गर्मी का मजा
हाथ सेक रहे हैं
चिताओं पर
आपका
शिल्पकार,
हर तरफ भेड़ियों का राज हो गया है!!!
ब्लॉ.ललित शर्मा, बुधवार, 6 जनवरी 2010काठ का चाँद!!!
ब्लॉ.ललित शर्मा, मंगलवार, 5 जनवरी 2010(१)
खुली
खिड़की
उतरी उषा
किरणों के साथ
तुम सोते रहे
(२)
काठ का चाँद
क्या रौशन करेगा?
आकाश
तुम्हारे लिए
है अमावश
(३)
छटती धुंध
आपका
शिल्पकार,
बड़ी हवेली ढहने लगी है अब !!
ब्लॉ.ललित शर्मा, सोमवार, 4 जनवरी 2010जरा ये कविता भी पढ़ कर देखें!!!
ब्लॉ.ललित शर्मा, रविवार, 3 जनवरी 2010सब लोग बड़ी बड़ी कविता लिखते हैं और छोटी से छोटी भी. एक दिन शरद भाई बोले यार मेरी कविता 57 पेज की है. मैं सोचने लगा कविता है कि खंड काव्य है. लेकिन उन्होंने पढवाई नही. फिर कभी पढवायेंगे. आज मैंने सोचा कि सब छोटी बड़ी लिखते हैं कविता. मै भी लिख कर देखता हूँ. तो मैंने भी आज ढाई लाईन की कविता लिखी है. आपका आशीर्वाद चाहूँगा.