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आया यौवन का ज्वार--एक गीत

रामेश्वर शर्मा जी छत्तीसगढ एक जाने माने कवि एवं साहित्यकार हैं। इन्होने कई छत्तीसगढी फ़िल्मों के लिए गीत लिखे हैं। हिन्दी और छत्तीसगढी में निरंतर लेखन कार्य करते हैं। साथ ही साथ भोजपुरी में भी लिखते हैं। इनकी साहित्य यात्रा एवं जीवन वृत्त बाद में लिखुंगा। पहले इनका एक गीत प्रस्तुत कर रहा हूँ। प्रथम बार नेट पर रामेश्वर जी का काव्य शिल्पकार के माध्यम से प्रस्तूत हो रहा है। आशा है कि आपको मधुर गीत पसंद आएगा।



आया यौवन का ज्वार ।

पूर्वा के आंचल से झर-झर झर-झर झर-झर झरे फ़ूहार
नदी,नहर तालाब तलैया में, आया यौवन का ज्वार ।

जंगल-जंगल मुरझाया था, दहक रही थी माटी सारी,
वर्षा रानी आकर तुमने, सरसाई आत्मा की क्यारी,
जगह-जगह लहराता पानी,नाच उठा व्याकुल संसार

लगी फ़ड़कने भुजा कृषक की,बैलों का मन डोल उठा,
भूख मिटाने मानव की मेहनत का देखो जादु बोल उठा
लगे किसान मनाने में उल्लास, उमंगों के दिन चार

हीरा-मोती बो खेतों में, जीवन जोत जगाएंगें
अपनी पर परिवार सभी की,पीड़ा दूर भगाएंगे,
ऐसे उच्च विचारों में खो,बहा रहा श्रम-श्रम की धार।

बीजें बोकर फ़ल को पाना,है कितना विस्वास भरा,
मिट्टी में सन कुंदन बनने का, क्रम ही आदर्श खरा,
जहां उठा संकल्प वहां पर,फ़िर कैसा साथी अंधियार

पूर्वा के आंचल से झर-झर झर-झर झर-झर झरे फ़ूहार
नदी,नहर तालाब तलैया में, आया यौवन का ज्वार ।

विमोचन समारोह में काव्य पाठ

मैं बादल की सहेली

हवा है मेरा नाम मैं बादल की सहेली
आकाश पे छा जाती हूँ मैं बनके पहेली

आँधियों ने आ के मेरा घर बसाया
आकाश के तारों ने उसे खूब सजाया
चली जब गंगा की ठंडी पुरवैया
धुप के आंगन में खिली बनके चमेली

चुपके आ के कान में बादल ने ये कहा
भर के लाया हूँ पानी तू धरती पे बरसा
प्यास मिटेगी सबकी फैलेगी हरियाली
धरती भी झूमेगी बनके दुल्हन नवेली

जादे के मौसम की मैं सर्द हवा हूँ
पहाडों में भी बहती रही मैं मर्द हवा हूँ
फागुनी रुत में सिंदूरी हुआ पलाश
पतझड़ आया तो फिरि मैं बनके अकेली

सदियों से मैं तो यूँ ही चलती रही हूँ
चलते-चलते मैं कभी थकती नही हूँ
बहना ही मेरा जीवन चलना ही नियति है
बंजारन की बेटी हूँ मैं तो ये चली

हवा है मेरा नाम मैं बादल की सहेली
आकाश पे छा जाती हूँ मैं बनके पहेली।

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