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माँ, पत्नी और बेटी------एक कविता-------->>>>>ललित शर्मा 0:-

पुरुष का जीवन मातृशक्ति के ईर्द-गिर्द ही घुमता है, उसे सबकी सुननी पड़ती है, माँ का हक होता है पुत्र पर तो पत्नी भी उतना ही हक जताती है फ़िर पुत्री भी पिता पर अपना हक प्रदर्शित करती है, इन सब के बीच उसे एक कुशल नट की तरह संतुलन बनाना पड़ता है, जरा सी भी चुक हुई और गृहस्थी धराशाई हो जाती है। फ़िर गृहस्थी बचाना हो तो तीनों में से किसी एक को गंवाना पड़ता है और ज्यादातर गाज माँ बेटे के संबधों पर गिरती है, पत्नी कहती है मेरा पति सिर्फ़ मेरा है, अगर तीनों को साथ लेकर चलना है तो कुशल प्रबंधन की आवश्यक्ता है क्योंकि यह एक महाभारत के युद्ध का मैदान जैसा है, जो हमेशा सजा रहता है पता नहीं रणभेरी कब बज जाए, प्रस्तुत है एक कविता, माँ-पत्नी और बेटी.......................


 माँ-पत्नी और बेटी


पृथ्वी गोल घुमती है
ठीक मेरे जीवन की तरह
पृथ्वी की दो धुरियाँ हैं
उत्तर और दक्षिण
मेरी भी दो धुरियाँ हैं
माँ और पत्नी
मै इनके बीच में ही
घूमता रहता हूँ
माँ कहती है,
आँगन में आकर बैठ 
खुली हवा में
पत्नी कहती है 
अन्दर बैठो 
बाहर धुल मच्छर हैं
माँ कहती है
तू कमाने बाहर मत जा
मेरी आँखों के सामने रह
थोड़े में ही गुजारा कर लेंगे
पत्नी कहती है 
घर पर मत रहो
बाहर जाओ
घर में रह के 
सठियाते जा रहे हो
बच्चों के लिए कुछ 
कमा कर जमा करना है
माँ कहती है धीरे चले कर
चोट लग जायेगी
पत्नी कहती है
जल्दी चलो 
अभी मंजिल दूर है
धीरे चलोगे तो 
कब पहुंचोगे वहां पर 
माँ कहती है 
बुजुर्गों में बैठे कर 
कुछ ज्ञान मिलेगा
पत्नी कहती है
बूढों में बैठोगे तो 
तुम्हारा दिमाग सड़ जायेगा 
इन बातों के बीच
एक तीसरी आ जाती है
बेटी भी कूद कर धम्म से 
मेरी पीठ पर चढ़ जाती है
तब कहीं जाकर
मेरा संतुलन बनता है
वह भी कहती है/पापा
क्या मेरा वजन उठा सकते हो
मैं कहता हूँ 
हाँ! बेटी क्यों नहीं?
इन दो धुरियों के बीच 
फ़ुट बाल बनने के बाद
आज तेरे आने से मेरे जीवन में
कुछ स्थिरता बनी है
इन दो धुरियों के बीच 
एक पूल का निर्माण हुआ है
मैं तो तुम तीनो की 
आज्ञा की अवज्ञा नहीं कर सकता
क्योकि  तुम तीनो हो मेरी
जनक-नियंता और विधायिका 

आपका
शिल्पकार

अवधपुरी मा चल जाबो रे----रामनवमी विशेष---------ललित शर्मा

अयोध्या नगरी मे भगवान रामचंद्र जी ने जन्म लिया-छत्तीसगढ प्रदेश (दक्षिन कोसल) उनका ननिहाल है। यहां पर भगवान का जन्मदिवस धुम धाम से मनाया जाता है, लोक गीतों में भगवान की स्तुति की जाती है। प्रस्तुत है परम्परागत लोक गीत-----


चलो जाबो रे अवधपुरी मा चल जाबो
जनम लिए जिंहा राम रमैइया,
सुग्घर दर्शन पाबो,चलो जाबो रे अवधपुरी मा चल जाबो

दुख के हरइया सुख के देवइया, सुनो सब नर नारी।
बड भागमानी जान जनइया, कौश्ल्या महतारी।
देवता मन हे फ़ुल गिरइया,अगास ले देख गिराबो रे

दाई माई मन हे अवइया, थारी मा कलसा धर के
गीत गो्विंद गाथे बधइया, राम के पांव ला पर के
कर आरती निछावर करही, सोहर छोहर गाबो रे
चलो जाबो रे अवधपुरी मा चल जाबो

रंग जाबो जी आज रंगइया, राम के रंग मा रंगाबो
झुमर-झुमर के ना्च नचैइया, कनिहा ला मटकाबो
उड़े गुलाल केसर मोर भैया, तारा चिखला मताबो
चलो जाबो रे अवधपुरी मा चल जाबो

सुनिए एक अद्भुत गीत --सिंदुर ला खोजे वो-----------------ललित शर्मा

आज नवरात्र पर फ़िर एक गीत लेकर आया हुँ भाई दुकालु राम यादव जी का। आप सुने अद्भुत गीत है आनंद अवश्य आएगा।





सिंदुर ला खोजे वो.......




गीत-भाई दुकालु राम यादव जी से साभार

प्रस्तुतकर्ता

शिल्पकार

सुनिए--जस गीत "महामाया के दर्शन कर लो"--ललित शर्मा

नवरात्र पर्व पर आज सुनिए दुकालु राम यादव जी के द्वारा गाया गया जस गीत "महामाया के दर्शन कर लो"






महामाया के दर्शन कर लो




दुकालु राम यादव जी से साभार


प्रस्तुतकर्ता
शिल्पकार

आपने कल पढा था---आज सुनिए--"कोयलिया कुहु कुहु बोले ना"

ल आपसे वादा किया था कि माता का जसगीत आपको सुनाने का प्रयास करुंगा। मेरा प्रयास पुरा हुआ और मै उसे आपके लिए लाने में सफ़ल हुआ। छत्तीसगढ के भजन सम्राट दुकालु राम यादव के "राम लखन तोर जंवारा" से यह गाना लिया गया हैं। हम उन्हे धन्यवाद देते हैं कि छत्तीसगढ की संस्कृति का प्रचार कर रहे हैं। "कुहु कुहु बो्ले ना कोयलिया" को सीमा कौशिक जी ने गाया है प्रस्तुत है माता का जंवारा गीत--आप आनंद लिजिए-आपको पसंद आयेंगे तो मेरा प्रयास सार्थक हो जाएगा।



1.कुहु कुहु बोले ना कोयलिया--गायक सीमा कौशिक



दुकालु राम यादव जी से साभार
आपका
शिल्पकार

नवरात्री मे माता का एक जसगीत-------ललित शर्मा

अभी नवरात्री मे माई के सेवा गीत गुंज रहे हैं तथा मेरी इच्छा है कि आपको सुनाए भी जाएं। इसके लिए मेरी कोशिश जारी है। सफ़लता मिलते ही सुनाने के व्यवस्था करुंगा। प्रस्तुत है माता का एक जसगीत (यश गीत)

आबे आबे ओ मोर दाई

आबे आबे ओ मोर दाई, हिरदे के गाँव मा
तोर मया के छांव मा रहितेंव तोर पांव मा
आबे आबे ओ मोर दाई, हिरदे के गाँव मा

मंदिर के घंटी घुमर, कान मा सुनाए
कान मा सुनाए ओ मोर दाई
जानो मानो अइसे लगथे
मोला तै बलाए-मोला तै बलाए ओ मोर दाई

तोर जोत मोर दाई, जग मा जगमगाए
जग मा जग मगाए ओ मोर दाई
तीन लोक चौदह भुवन, तोर जस ल गाए
तोर जस ला गाए ओ मोर दाई
कइसे मै मनाऊ माँ, लइका तोर आवंव माँ
आबे आबे ओ मोर दाई, हिरदे के गाँव मा

ब्रम्हा, बिस्णु, संकर तोला,माथ ये नवाये
माथे ये नवाये ओ मोर दाई
जग के जगदम्बा दाई, जग ल तैं जगाये
जग ल तैं जगाये ओ मोर दाई
करे तैं हियांव मा मया ला पियावं मा
आबे आबे ओ मोर दाई, हिरदे के गाँव मा

रुप तोर कतको दाई, कोन बता पाये
कोन बता पाये ओ मोर दाई
कण कण मा बसे ओ दाई सांस मा समाये
सांस मा समाए ओ मोर दाई
बिनती ला सुनाववं माँ, भाग ला सहरावं माँ
आबे आबे ओ मोर दाई, हिरदे के गाँव मा

आपका
शिल्पकार

कुछ शब्दार्थ

आबे=आईए
मोर=मेरी
दाई=माँ माता
रहितेवं=रहता
तोर=तेरे
पांव=चरण
हिरदे=हृदय
मोला=मुझे
बलाए=बुलाया
अइसे=ऐसे
लागथे=लगता है
मया=प्रेम-स्नेह
आववं=हुँ
सुनाववं=सुनाऊँ

रन बन रन बन हो SSS-----ललित शर्मा

वरात्रों की धुम जोरों पर है। छत्तीसगढ़ मे जसगीत गाने वाली सेवा टोलियां जंवारा स्थल पर जाकर देवी माता की सेवा कर रही हैं, जगह-जगह जंवारा गीत गाए जा रहे है- जवाँरा से तात्पर्य ठंड मे बोए जाने वाला धान्य जौ से है। जंवारा छत्तीसगढ़ मे शक्ति की देवी दुर्गा माता का प्रतीक है  शब्द शीतकाल में रोपे जाने एक अनाज जौ से बना है । छत्तीसगढ़ में जवाँरा जो कि शक्ति और देवी का प्रतीक है । वर्ष में दो बार बोया जाता है । चैत शुक्ल से नवमी तक तथा द्वितीय कुंआर शुक्ल से नवमी तक जवाँरा में गेहूँ, उड़द, चना पांच या सात प्रकार के बीज घर के भीतर भूमि पर अथवा टोकनी में देवी स्थापना के पश्चात् बोये जाते है । अंकुरित, पौधो की सुबह शाम पूजा की जाती है, जवाँरा के सेवक इस अवसर पर जवाँरा गीत गाये जाते है । जवाँरा गीतों में दुर्गा माँ की आरती विभिन्न देवताओं की स्तुति उनके निवास वाहन तथा भोजन आदि का वर्णन मिलता है । ढोलक, झांझ, चांग, मंजीरा, मांदर, खलहर आदि पौधों का प्रमुख जवाँरा गीत में प्रयोग किया जाता है । जंवारा सेवा दल के श्री नंद कुमार निषाद राज के सौजन्य से कुछ माता सेवा गीत प्राप्त हुए हैं जिन्हे प्रस्तुत कर रहा हुँ।

जसगीत-माता सेवा गीत

रन बन रन बन हो SSS
तुम खेलव दुलरवा रन बन रन बन होSSS
रन बन रन बन हो SSS
काकर पुत हे बाल बरमदेव काकर पुत गौरेइया
काकर पुत हे बन के रक्सा
रन बन रन बन हो SSS
ब्राहमन पू्त हे बाल बरमदेव अहिरा पूत गौरेइया
धोबिया पूत हे बन के रक्सा
रन बन रन बन हो SSS
कहंवा रहिथे बाल बरमदेव कहंवा रहिथे गौरेइया
कहंवा रहिथे बन के रक्सा
रन बन रन बन हो SSS 
बर मा रहि्थे बाल बरमदेव कोठा मा रहिथे गौरेइया
बन मा रहिथे बन के रक्सा
रन बन रन बन हो SSS
का पूजा लेथे बाल बरमदेव, का पूजा लेथे गौरेइया
का पूजा लेथे बन के रक्सा
रन बन रन बन हो SSS
नरियल लेथे बाल बरमदेव, कुकरी लेथे गौरेइया
यहां भैंसा लेथे बन के रक्सा
रन बन रन बन हो SSS  
तुम खेलव दुलरवा रन बन रन बन होSSS
रन बन रन बन हो SSS

आपका 
शिल्पकार
 

सज्जनाष्टक नामक सुदीर्घ काव्य------ललित शर्मा

गतांक से आगे--  शिवरीनारायण में भारतेंदु मंडल के तर्ज पर ठा. जगमोहन सिंग मंडल का अभ्युदय हुआ. जिसमे इस मंडल के आठ कवि  प्रमुख थे इन कवियों को लेकर ठा.जगमोहन सिंग ने सज्जनाष्टक नामक सुदीर्घ काव्य की रचना की. प्रस्तुत है सज्जनाष्टक................
श्रीमद्विजयराघवगढाधिपात्मज तथा जिला बिलासपुर मे तहसील शिवरीनारायण के तहसीलदार और मजिस्ट्रेट श्री ठाकुर जगमोहन सिंह कृत्।

सज्जनाष्टक

सत संगत मुद मुंगल मूला। सुई फ़ल सिधि सब साधन फ़ूला।

श्री गणेश नारायण शिव कंह अज श्रीरामहिं ध्याऊं।
नवो सिद्धि अरु सिद्धि बुद्धि सब जिन प्रसाद बर पाऊं॥(१)

बंदौ आदि अनन्त शयन करि शबर नारायण रामा।
बैठे अधिक मनोहर मंदिर कोटि काम छवि धामा ॥ (२)

जिनको राग भोग करि निभु दिन सुख पावत दिन रैनु। 
भोगहा श्री यदुनाथ जू सेवक राम राम रत चैनु॥(३)

है यदुनाथ नाथ यह सांचो यदुपति कला पसारी।
चतुर सुजन सज्जन सत संगत सेवत जनक दु्लारी॥ (४)

दिन-दिन दीन लीन मुइ रहतो कृषी कर्म परवीना।
रहत परोस जोस तजि मेरे है द्विज निपट कुलीना॥(५)

पै इक सन्त महन्त जेहि जगत प्रभाव बिराजै्।
राका सो चहुं सुजस सुनिर्मल छुसरत देसन साजै॥ (६)

शांत रुप बपु मनौ सुइ आजु सजीव लखाई।
गल तुलसी सोहत सुन्दर वर दरस पुनीत पन्हाई॥ (७)

करहिं कमंडलु लटकत जाके दिए एक को पीना।
मनु इंद्रिह कहं जीत ज्ञान को ग़ठरी लटका लीना॥(८)

रुप केस भेस अति सुन्दर गुन मन्दिर अभिरामा।
जटा पुंज सीसहिं के मनु सोभित छवि धामा ॥(9)

बाबा जिन तीरथ के कावा कर अनेकन बारी।
अर्जुन दास दास हनुमत के तनचरनन ब्रत धारी॥ (10)

बितवत दिवस रैन भजनन में चैन न अन्तहि पावै।
हरि को ध्यान किए बिनु ताकहं खान-पान नहि भावै॥ (11)

प्रतिदिन भोर नहात शीत नहिं गिनत करत तप भारी।
सग शरीर सुख छाड़ि प्रान कहं देत कलेशहिं भारी॥(12)

जाके दरस पुनीत किए सब कटत पाप के पुंजा।
गंगा अरु काशी प्रयाग बट गिने जात जिमि गुंजा॥(13)

तीरथ बरथ व्यर्थ सब करहीं कठिन मुक्ति के काजा।
क्यौं न जाय छिन दरस करत इन विपुल पुन्य सिर ताजा॥(14)

संगम सन्त समाज सुभग सब हरतु पाप की राशी।
नहिंन होत बिनु ज्ञान मुक्ति कोउ करै कोटि दिन काशी॥(15)

वेद पुरान न्याय सब कहहीं ज्ञान बिना नहीं होई।
मुक्ति जदपि कोटिन तीरथ करि रहे भरम सब कोई॥(16)

तीरथ ध्यान जोग जप तपहु इक तुलना करि राखै।
पै बिनु ज्ञान मिलत नहिं कबहुं सुख अनन्त श्रुति भाखै॥(17)

सो न होत बिनु सन्त संग के सत संगत फ़ल भारी।
वाल्मीकि नारद मुनीशहू भे मुनीश व्रत धारी ॥ (18)

तेहु रहे नीच जन्महिं के पै सत संग अनूपा।
पाय भए मुनि ब्रह्म तेज मय लखहु प्रभाव सरुपा॥ (19)

सत सहस्त्र साधु समाज नित रहत आय मदमाहीं।
तिन कंह नित्त दिवस षट् रस के भोजन स्वादु सराहीं॥(20)

सदावर्त जहं बटत नेम सों कटत चैन दिन राती।
घटत न कहुँ भंडार राम को बस्तु न कछु सिराती॥(21)

चेला भए तासु गुन मेला रहत सुमठ सिर ताजा।
गौतम मनु दूजो यह सोहत गौतम दास बिराजा॥ (23)

ताको सकल कर्म कर निसि दिन ॠषिराम अनुगामी।
मानौ स्वामि धर्म को अंकुर ता मन आयौ जामी॥(24)
 

माखन साहु राहु दारिद कहं अहै महाजन भारी।
दीन्हो धर माखन अरु रोटी बहु बिधि तिनहिं मुरारी॥(25)

लच्छ पती सुद शरन जनन को टारत सकल कलेशा।
द्र्व्य हीन कहं है कुबेर सम रहत न दुख को लेशा॥ (26)

दुओ धाम प्रथमहिं करि निज पग कांवर आप चढाई।
सेतु बन्ध रामेसुर को लहि गंगा जल अन्हवाई ॥(27)

चार बीस शरदहुं के बीते रीते गोलक नैना।
लखि असार संसार पार कहं मुंदे दृग तजि चैना॥(28)

अपर एक पंडित गुन खानी मानी हीरारामा
हीरा सो अति विमल जासु जस छहरत चहुँ छवि धामा॥(29)

यह पुरान मनु भयो वाचि के दस अरु आठ पुराना।
जीरि सकल इन्द्रिन अग बैठयौ शिव सरुप अभिरामा॥ (30)

तिमि जग मोहन के परोस में मोहन रहत पुजारी।
राग भोग पुजारु पाठ करि प्रभु चरनन मन धारी॥ (31)

रमानाथ लक्ष्मी नारायण के भरोस सुख सोवै।
देत जीविका जो निसि बासर सुई ताकौ दुख खोवै॥(32)

दोहा

रहत ग्राम एहि बिधि सबै सज्जन सब गुन खान्।
महानदी सेवहिं सकल जननी सब पय पान॥ (33)

श्री जगमोहन सिंह रचि तीरथ चरित पवित्र।
सावन सुदि आठैं बहुरि मंगलवार बिचित्र्॥ (34)

संवत् बिक्रम जानिए इन्दु बेद ग्रह एक।
शबरीनारायण सुभग जहं जन बहुत विवेक्॥(35)


प्रस्तुत कर्ता
शिल्पकार

ठाकुर जगमोहन सिंह-एक अद्भुत रचनाकार------ललित शर्मा

ठाकुर जगमोहन सिंह एक जाना पहचाना नाम है खड़ी बोली के  गद्य को संवारने और गढ़ने वाले साहित्य करों में. बनारस के क्वींस कालेज में अध्ययन के दौरान वे भारतेंदु हरिश्चंद्र के सम्पर्क में आए तथा यह सम्पर्क प्रगाढ़ मैत्री में बदल गया जो की जीवन पर्यंत बनी रही.
ठाकुर जगमोहन सिंह का जन्म विजयराघवगढ़ रियासत में ठा.सरयू सिंह के राज परिवार में ४ अगस्त सन १८५७ में हुआ था. ठा. सरयू सिंह के पूर्वजों का संभंध इछ्वाकू वंश के जयपुर के जोगवत कछवाहे घराने से था. १८५७ के विप्लव में ठा. सरयू सिंह ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया था. फलस्वरूप अंग्रेजो ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया. उन्हें काले पानी की सजा सुनाई गई. लेकिन अंग्रेजी हुकूमत में सजा भोगने की बजाय ठा. सरयू सिंह ने मौत को गले लगना उचित समझा.ठा.जगमोहन सिंह ऐसे ही क्रांतिकारी, मेधावी एवं स्वप्न दृष्टा सुपुत्र थे.
१८७८ में शिक्षा समाप्ति के बाद वे राघवगढ़ आ गए. दो साल पश्चात् १८८० में धमतरी (छत्तीसगढ़) में तहसील दार के रूप में नियुक्त किये गए. बाद में तबादले पर शिवरीनारायण आये. कहा जाता है कि शिवरीनारायण में शादी शुदा होते हुए भी इन्हें श्यामा नाम की स्त्री से प्रेम हो गया. शिवरीनारायण में रहते हुए इन्होने श्यामा को केंद्र में रख कर अनेक रचनाओं का सृजन किया. जिनमे हिंदी का अत्यंत भौतिक एवं दुर्लभ उपन्यास श्याम-स्वप्न प्रमुख है. इसके अतिरिक्त इह्नोने  श्यामलता, श्याम सरोजिनी जैसे उत्कृष्ट रचनाओं का भी सृजन किया. इनके द्वारा लिखित अन्य रचनाओं की चर्चा अगली किश्त में करेंगे. इनके द्वारा रचित कुछ कुंडलियाँ,जिनमें शिवरीनारायण क्षेत्र की दशा का वर्णन हैं--- प्रस्तुत है.

कुंडलियाँ

इक थाना तहसील के मध्य धर एक फुटि
उत बजार सों प्रबल जल निकस्यो अट्टा टूटि
निकस्यों अट्टा टूटि फ़ुटि गिजि परीं अटारी
गिरि गेह तजि देह देहरी और दिवारी
(क)जोगी डिफ़ा सुदीप मनौ तंह जल जाना
उत पुरब सब पंथ रोकि घेरवौ त थाना ॥

पूरब केरा के निकट पश्चिम निकट खरौद
लगभग फ़ेर लुहारसी उत्तर ग्रामहिं कोद
उत्तर ग्रामहि कोद जहां टिकरी पारा है
दच्छिन हसुवा खार पार लौ जल धारा है
जंह लौ देखो नजर पसारत जल जल घेरा
कैय्यक कोसन फ़ैलि घेरि फ़िरि पूरब केरा ॥

बह्यो माड़वारीन को व्योपारी सो आज
नोन हजारन को सही चिनी असीम अनाज
चिनी असीम अनाज बसन अरु असन मिठाई
चढि छप्पर जिहि छैल सुघर लूटत बहुखाई
बची कमाइ माल पसीनागारो जुरह्यो
बइमानी को पोत आजु मनु सोतहिं रह्यो॥

धाई चलत बजार मे नाव पोत जल सोत
तनक छिनक को ह्वे रह्यो काशमीर छवि होत
आरत करत पुकार कंपत तन धन गत सोगा
काशमीर छवि होत द्वार द्वारन पै डोंगा
मठ दरवाजे पैठ लहर मंदिर बिच आई
जंह छाती लौ नीर धार सुई तीरहिं धाई॥

पुरवासी व्याकुल भए तजी प्राण की आस
त्राहि-त्राहि चहुँ मचि रह्यो छिन-छिन जल की त्रास
छिन-छिन जल की त्रास आस नहिं प्रानन केरी
काल कवल जल हाल देखि विसरी सुधि हेरी
तजि तजि निज निज गेह देहलै मठहिं निरासी
धाए भोगहा ओर कोऊ आरत पुरवासी॥

कोऊ मंदिर तकि रहे कोऊ मेरे गेह
कोऊ भोगहा यदुनाथ के शरन गए लै देह
शरन गए लै देह मरन तिन छिन मे टारयौ
भंडारो सो खोलि अन्न दैदीन उबारयों
रोवत कोउ चिल्लात आह हनि छाती सोऊ
कोऊ निज धन घर वार नास लखि बिलपति कोऊ॥


सोरठा
कियो जौन जल हाल दिन द्वै मे को लेखई।
मानहु प्रलय सुकाल आयो निज मरजाद तजि॥

प्रस्तुतकर्ता
आपका
शिल्पकार

उल्लासोपरांत पतझड़ का मौसम आपके लिए---------स्वागत कीजिए इसका भी........ललित शर्मा

होली बीत गई अब पतझड़ आ गया है........वातवरण में गर्माहट है.........पेड़ों के पत्ते पीले पड़ रहे हैं........ वृक्ष अपना क्या कल्प कर रहे हैं इस मौसम में पूरण पत्ते छोड़ कर नए धारण कर रहे हैं जैसे कोई अपनी क्या चमकाने कपडे बदल रहा हों....... पलाश के पेड़ों पर तो लाली गजब की छाई है......... एक दिन उसे भी दिखाऊंगा......... चित्रों के माध्यम से........ होली के उल्लास के बाद अब कहीं जाकर खुमार उतरा है........ लेकिन मन कुछ अनमना सा है मौसम का असर है.......... पतझड़ का मौसम होता ऐसा ही है.......... जब रौनके देखी तो पतझड़ भी देखना है दुनिया का कटु सत्य है......... प्रकृति के साथ मनुष्य जुड़ा हुआ है........... लेकिन प्रकृति से यह भी सीख लेनी चाहिए की किसी भी तरह का उल्लास दो घडी का है और आप यदि विवेकी है तो इसका रचनात्मक उपयोग कर सकते हैं............ नहीं तो फिर पतझड़ सामने ही है........... टूट कर पत्तों की तरह बिखर जाना है..........आइये पतझड़ पर एक कविता प्रस्तुत है....... आपका आशीर्वाद चाहूँगा......................

पतझड़ आया

पतझड़ का मौसम
वृक्ष पर एक भी पत्ता नहीं
यह मौसम पहले भी आता था
अब फिर लौटा
कोयल की कूक 
बुलबुल के नगमे खो गए हैं
दूर गहराईयों में 
उदास डाल पे बैठी है कोयल
तेज पवन के झोंकों से 
पत्तों के खड़कने की सदा आती है.
वृक्ष केंचुली बदल रहा है
यौवन की आस में
सूखे पत्ते तड़फ रहे हैं प्यास में
यही नियति हैं 
कल आंधी तुफानो में 
पत्तों ने दिया था भरपूर साथ
लेकिन आज सर हिला दिया
सारे सर चढ़े पत्ते गिर पड़े भरभरा कर
पत्ते कहते हैं
पहले भी हमने संकट काल में
विपदाओं से डट कर मुकाबला किया
लेकिन वृक्ष ने ही साथ छोड़ दिया
अबकी बार हमारे पांव उखड़ गए
आँधियों से मुकाबले में 
हम छलके हुए पारे की तरह बिखर गए
यह तो नियति का खेल है
कुछ देर यौवन का उन्माद देखना है
फिर टूट कर समाहित हो जाना है
इसी दुनिया की धुल में
गुम हो जाना है बिना किसी नाम के
बेनाम हो कर/ मनुष्य की तरह 


आपका 
शिल्पकार,

लाल -गुलाल -अबीर के छाये हए हैं रंग-----चित्र होली के----------ललित शर्मा

ल होली का हुआ धमाल-हम तो सुबह से ही तैयार हो कर अपने दालान में बैठ चुके थे.........हमारे यहाँ परंपरा है कि लोग अपने से बड़े (पद, प्रतिष्ठा, उम्र और अजीज मित्र ) को पताशों के बने हुए मीठे हार पहनाते हैं........ बहुत ही अच्छी परंपरा है कि होली में कडुवाहट भूल कर मिठास जीवन में बनी रहे.........सुबह से ही मित्रगण और गांव के सहयोगी आने प्राम्भ हो चुके थे. ............ . गुलाल रंग और मालाएं लेकर ........फिर होली का कार्यक्रम शुरू हो चूका था...........जो दिन भर चलता रहा...........इस अवधि में तो फोन भी उठाना मुस्किल हो जाता है.......पुरे भारत से होली की शुभकामनाओं के सन्देश आ रहे थे.............हमारे नए पुराने मित्रों के ..........हमने उन्हें शाम को जवाब दिया...........और हमारी फौजी होली आखिर शाम को ही मनी..........कुछ पटियाला और कुछ जालन्धर पेग बने और फिर चलती रही महफ़िल.........होलीयारे मित्रों के साथ.......... .होली में यह कुछ दस्तूर भी हो गया है.........बिना दवा- दारू के स्वागत होता ही नहीं है..........
हमारे यहाँ होली पंचमी तक मनाई जाती है जिसे रंग पंचमी भी कहा जाता है.......लेकिन आज ऐसी स्थिति है कि जैसे फागुन के बाद सचमुच पतझड़ आ ही गया हो........धुप चमकीली हो चुकी है.........वातावरण में गरम हवाएं चल रही हैं...........होली के जाते ही पेड़ों के पत्ते पीले पड़ गए हैं............ अब इस पर फिर कभी लिखेंगे हमारी होली में आप भी शामिल होईये  कुछ चित्रों के साथ..................

  कुछ चित्र होली के मित्रों के साथ

 चंद्रिका और युवराज कुमार

 
तुलेन्द्र तिवारी जी और अनुज साहु जी

 
फ़ौजी जैन साहब और अजय शर्मा

 
होली चलेगी रंग पंचमी तक

 
नरेश कुमार बचपन का मित्र 

 
अब हमने खेली होली श्रीमती जी के संग
लाल -गुलाल -अबीर के छाये हए हैं रंग  




आप सभी को होली की हार्दिक शुभकामनायें 


 

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