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मैं परदेश फंसा हूँ आय ......


 मैं  परदेश  फंसा  हूँ आय .................................
तोड़  के पिंजरा  एक  दिन, उड़ जाऊँ पंख फैलाय

आ बैठा था एक डाली   पे,चन्द्र  किरण को ताके
दिवस  हो  तो  मैं  उड़ जाऊँ,  ईत  उत था  झांके 
जाल फैलाये बैठा बहेलिया,मुझको लिया फंसाय
मैं परदेश फंसा हूँ  आय...................................

पॉँच  डोर  से  बांध के मुझको,पिंजरे दिया बैठाय
खुले  गगन  में  उड़ने  वाला,  कैद  हुआ हूँ  आय 
काल  कोठरी  मिली  भयंकर,  कैसे   कैद   हेराय
मैं परदेश फंसा हूँ  आय...................................


मुझ  हंसा  का  यहाँ  नहीं  घर, मेरा  दूर  ठिकाना
दिन   रैन   कैदी   बनके,  पडा  है  समय  बिताना
पिंजरा  खुलते  ही  उड़  जाऊँ, अपने   पर  फैलाय
मैं  परदेश  फंसा  हूँ  आय..................................







आपका 
शिल्पकार 

फोटो गूगल से साभार

Comments :

4 टिप्पणियाँ to “मैं परदेश फंसा हूँ आय ......”
Gyan Darpan ने कहा…
on 

मैं परदेश फंसा हूँ आय .

परदेश का दर्द परदेशी ही जान सकता है | राजस्थान के कवि भगीरथ सिंह भाग्य ने इस दर्द को कुछ इस तरह बयान किया है |

लोग ना जाणे कायदा ना जाणे अपणेश
राम भले ही मौत दे पर मत दीजै परदेश |

ब्लॉ.ललित शर्मा ने कहा…
on 

लोग ना जाणे कायदा ना जाणे अपणेश,

यो तो अपणेश ही सै, जो मिणख नै सात समदर पार भी भायलो बणा दे, ओर गाँव म रह्वे तो दुश्मनी, फ़ेर परदेश तो पर-देश सै।
परदेशी की प्रीत की रे,कोई मत करियो हो।
बिणजारे की आग युँ भई,गया सुलगती छोड़॥

बेनामी ने कहा…
on 

देश परदेश मे भेद मत करो किसी ने कहा है
"चीन और अरब हमारा, सारा जहां हमारा
रहने को घर नही है, हिन्दुस्तान हमारा।

शरद कोकास ने कहा…
on 

मुझे कवि प्रदीप का लिखा और गाया पिजड़े के पंछी गीत याद आ गया । अच्छी रचना ।

 

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